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* प्राकृत व्याकरण *
पुरुष में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर साहमि रूप सिद्ध हो जाता है ॥२-२०॥
अई संभावने ॥२-२०५॥ संभावने अइ इति प्रयोक्तव्यम् ।। अइ ॥ दिअर कि न पेच्छसि ॥
अर्थः-प्राकृत-साहित्य में प्रयुक्त किया जाने वाला 'अई' अव्यय 'संभावना' अर्थ को प्रकट करता है। 'संभावना है। इस अर्थ को 'अह' अव्यय व्यक्त करता है। जैसे:-प्राइ, देवर ! किम न पश्यसि-श्राइ; दिश्रर ! किं न पेच्छसि अर्थात (मुझे ऐसी) संभावना (प्रतीत हो रही) है (कि) हे देवर ! क्या तुम नहीं देखते हो।
प्राकृत साहित्य को रूढ अर्थक और रूढ-रूपक अव्यय है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है।
देवर संस्कृत संबोधनात्मक रूप है । इसका प्राकृत रूप दिअर होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१४६ से 'ए' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'व' का लोप और ३-३८ से संबोधन के एक वचन में प्राप्तव्य प्रत्यय (सि-) श्रो' का अभाव होकर विअर रूप सिद्ध हो जाता है ।
'कि' अध्यय को सिद्धि सूत्र-संख्या १-२९ में की गई है। 'म' अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-5 में की गई है।
पक्ष्यारी संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है । इसको प्राकृत रूप पेच्छमि होता है । इममें सूत्रसंख्या ४-१८१ से संस्कृत मूल-धातु 'इश' के स्थानीय रूप 'पश' के स्थान पर प्राकृत में 'पेच्छ' आदेश; ४-२३६ से संस्कृत विकरण प्रत्यय 'य' के स्थान पर प्राकृत में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; और ३-१४० से वर्तमान काल के एक बचब में द्वितीय पुरुष में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर येच्छसि रूप सिद्ध हो जाता है ।।२-२०शा
वणे निश्चय-विकल्पानुकम्प्ये च ॥२-२०६॥ वणे इति निश्चयादी संभावने च प्रयोक्तव्यम् । वणे देमि । निश्चयं ददामि ॥ विकल्पे । होइ वणे न होइ । भवति वा न भवति ।। अनुकम्प्ये । दासो वणे न मुच्चद। दासोऽनुकम्प्यो न त्यज्यते ॥ संभावने । नस्थि वणे जं न देह विहि परिणामो । संभाव्यते एतद् इत्यर्थः ।।
अर्थ:--'वणे' प्राकृत-साहित्य का अव्यय है; जो कि निम्नोत चार प्रकार के अर्थों में प्रयुक्त हुआ करता है:-(१) निश्चय-अथ में; (२) विकल्प-अर्थ में; (३) अनुकंप्य-अर्थ में-दिया-प्रदर्शन-अथ में)