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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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से प्राप्त पुस्लिग रूप से स्त्रीलिंग-रूप-निर्माणार्थ 'सो' प्रत्यय की प्राप्ति प्राप्त प्रत्यय 'हो' में ''संसक होने से पूर्वस्थ 'र' में स्थित 'अ' को इत्सला होने से इस 'अ' का लोग, १.५ से प्राप्त हलन्त 'र' में आगे प्राप्त स्त्रीलिमअर्थक 'जी' प्रत्यय की सषि और ५-२९ से तृतीया विभक्ति के एक वचन में कीर्घ इकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'या' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उबाडिरीए रूप सिब हो जाता है।
तया संस्कृत तृतीयान्स सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप सोए होता है। इसमें सूत्र-सल्या १-११ से मल संस्कृत शब्द 'तत्' में स्थित अन्य हलन्त 'त्' का लोप; ३-३३ से शेष 'त' में प्राप्त पुल्लित रूप से स्त्रीलिग-कपनिर्माणार्थ 'हो' प्रत्यय की प्राप्ति प्राप्त प्रत्यय हो' में 'इ' इत्संज्ञक होने से पूर्वस्य 'त' में स्थित 'म' की इसंहा होमे से इस '' का लोप; १-५ से प्राप्त हलन्स 'त' में आगे प्राप्त स्त्रीलिंग-अर्थ-को प्रत्यय को संषि और ३.२९ हतीया विभक्ति के एक वचन में दीर्घकारान्त बोलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सीए रूप सिद्ध हो जाता है।
भणितम् संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप भनि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रघमा विभक्ति के एक बयान में भकास समलि प्रत्यप के स्थान पर 'म' प्रत्यय को प्राप्ति १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर भणि रूप सिद्ध हो जाता है।
'न' अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-5 में की गई है।
विस्मरामः संस्कृत सकर्मक क्रियापर का रूप है। इसका प्राकृत रूप विहरिमो होता है। इसमें सूत्रसंख्या २-७४ से 'स्म' के स्थान पर 'ह' आदेश; ४-२३९ से संस्कृत में प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थानीय रूप के स्थान पर प्राकृत में विकरण प्रत्यय रूप 'अ' की प्राप्ति और ३.१५५ से प्राकृत में प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' स्थान पर 'इ' को प्राप्ति; ३.१४४ से वर्तमानकाल के बहु वचन में तृतीया पुरुष में अर्थात उत्तम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'मः' के स्थान पर प्राकृत 'भो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विम्हारमो रूप सिद्ध हो जाता है ॥२.१९३॥
वेध च आमन्त्रणे ॥२-१६४॥ वेध वेब्वे च मामन्त्रणे प्रयोक्तव्ये । येन्च गोले । वेव्धे मुरन्दले वहसि पाणिनं ।।
अर्थ:--सामानगे 'अर्थ में अथवा संबोधन-अर्थ में देव और श्वे शब्दों का प्रयोग किया जाता है। जैस:हे गोले = वेश्य गोले - हे सहि ! हे मुरवले वहसि पानोयम् = हे मरम्बले ! बहसि पाणिनं = हे मुरबल ! तू पोने योग्य बस्तु विशेष लिय जा रहा है।
वेष प्राकृत साहित्य का बड़ रूपक और रुत-अर्थक अवषय है। अतः सापनिका की आवश्यकता नहीं है ।
गोले देशम शम्म रूप होने से संस्कृत रूप का अभावहै । इसमें सबसल्या ३.४१ से संबोधन के एक पचन में अन्त्य 'आ' के स्थान पर 'ए' को प्राप्ति होकर गोले रूप तिय हो जाता है।