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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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'सह' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-६७ में की गई है। "वि' अध्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-5 में की गई है। 'न' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १.६ में की गई है।
द्वेष्याः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप सा होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'द्' का लोप; १.२६० से '' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति, २-७८ से 'य' का लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'स' के साथ लुप्त 'य' में से शेष रहे हुए 'श्रा' की संधि और ३-४ से प्रथमा विभकि के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्' का लोप एवं ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के पूर्व में स्थित 'श्रा' को यथामिश्रति 'पा' को ही प्राप्ति होकर बेसा रूप सिद्ध हो जाता है।
भवन्ति संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप हवन्ति होता है । इसमें सूत्र संख्या ४-६० से संस्कृत धातु 'भू' के स्थान पर प्राकृव में 'हव' श्रादेश; ४-२३६ से प्राप्त एवं हलन्त धातु 'हव' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमान काल के बहुवचन में प्रथम पुरुष में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हन्ति रूप सिद्ध हो जाता है ।
युपतीनाम् संस्कृत षष्ठयन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप जुबईण होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'श्राम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जुईण रूप सिद्ध हो जाता है।
'कि' अध्यय को सिद्धि सूत्र संख्या १-२९ में की गई है। 'पि' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-४१ में की गई है। 'रहस्स' की सिद्धि सूत्र संख्या २-१९८ में की गई है।
जानन्ति संस्कृत क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप मुणन्ति होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-७ से संस्कृत धातु 'शा' के स्थानीय रूप 'जान' के स्थान पर प्राकृत में 'मुण' श्रादेशः ४-२३६ से प्राप्त एवं हलन्त धातु 'मुण' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमान काल के बहुवचन में प्रथम पुरुष में प्राकृत में 'न्ति' प्रत्यय को प्राप्ति होकर मुणन्ति रूप सिद्ध हो जाता है।
धूर्ताः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप धुत्ता होता है। इसमें सूत्र संख्या १.८५ से दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति २-८६ से 'र' का लोप; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्' का लोप और ३.१२ से प्राप्त एवं लुप्त प्रत्यय 'जम्' के पूर्व में स्थित 'च' के अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को दीर्य स्वर 'श्रा' की प्राप्ति होकर धुत्ता रूप सिद्ध हो जाता है।
जनाभ्यधिका: संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप जणन्महिना होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४