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*प्राकृत व्याकरण *
से दीर्घ स्वर 'श्रा' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति: १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' को प्राप्ति; २. से 'य' का लोप; २.८८ से लोप हुए 'य' के पश्चात शेष रहे हुए 'म' को द्वित्व 'म' की प्राप्ति; २-१० से प्राप्त पूर्व 'भ' के स्थान पर 'ब' की प्राप्ति; १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह,' की प्राप्ति; १-१५१ से 'क' का लोप; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्' के पूर्व में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर जणभहिआ रूप सिद्ध हो आता है।
सुप्रभातम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सुपहायं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-9 से 'र' का लोप; १-१८७ से 'म्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १.१७७ से 'न्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'तु के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म'का अनुस्वार होकर सुयहार्य रूप सिद्ध हो जाता है।
'दणं रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है। 'अज' अध्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-3 में की गई है।
अस्माकम् संस्कृत षष्ट्यन्त सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत रूप (अ) म्ह होता है। इसमें सूत्रसंख्या ३-११४ से संस्कृत 'अस्मद्' के षष्टी बहुवचन में 'श्राम् प्रत्यय का योग होने पर प्राप्त रूप 'अस्माकम्' के स्थान पर प्राकृत में 'अम्ह' श्रादेश की प्रामि और १-0 से मूल गाथा में 'अज्जम्ह' इति रूप होने से 'अ' के पश्चात 'अ' का सद्भाव होने से 'अम्ह' के आदि 'अ' का लोप होकर 'म्ह' रूप सिद्ध हो जाता है।
सफलम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप सप्फलं होता है। इसमें सूत्र संख्या -६७ से 'फ' के स्थान पर द्वित्व 'फफ' की प्राप्ति; २-१० से प्राप्त पूर्व 'फ' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति; ३-५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' पत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर सफल रूप सिद्ध हो जाता है ।
जी रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२७१ में की गई है।
अतीते संस्कृत रूप है। इसका प्रोकत रूप अहम्मि होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से दोनों 'स' वर्णो का लोप; १-१०१ से प्रश्रम 'तू' के लोप होने के पश्चात शेष रहे हुए दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुस्तिग में संस्कृत प्रत्यय 'वि' के स्थानीय रूप 'ए' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अइअम्मि रूप सिद्ध हो जाता है।
. त्वया संस्कृत तृतीयान्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप तुमे होता है । इसमें सूत्र संख्या ३-६४ से 'युष्मद्' संस्कृत सर्वनाम के तृतीया विभक्ति के एक वचन में 'टा' प्रत्यय का योग होने पर