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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित •
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हो जाने पर (भी) ( उसकी ) छाया ( तक ) मुझे नहीं ( दिखाई दी)। 'वैकल्पिक' अर्थ में जहाँ 'ओ' प्राता है तो वह प्राप्त 'श्री' संस्कृत अव्यय विकल्पार्थक 'उत अव्यय के स्थान पर प्रादेश रूप होता है। जैसा कि सूत्र संख्या १-१७२ में वर्णित है । उदाहरण इस प्रकार है:-उत विरचयामि नमस्तले यो घिरएमि नहयले । इस उदाहरण में प्राप्त 'श्रो' विकल्पार्थक है न कि 'सूचना एवं पश्चात्ताप' अर्थक; यो अन्यत्र भी तात्पर्य-भेद समझ लेना चाहिये ।
'ओं अव्यय प्राकृत-साहित्य में रूढ रूपक और रूढ-अर्थक है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है।
अधिनय-तृप्तिपरे संस्कृत संबोधनात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप अविणय-सत्तिल्ले होता है। इसमें सूत्रसंख्या १.२६८ से 'न' के स्थान पर 'ण' को प्रामिः १.१२६ से 'भू' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति २-७७ से 'प' का लोप; २.८१ से लोप हुए 'पू' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व त' की प्राप्ति; २-१५६ से 'मत' अर्थक 'पर' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'इल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति; .१. से प्राप्त प्रत्यय 'इल्ल' के पूर्व में स्थित 'त्ति' के 'इ' का लोप; ५-५ से प्राप्त हलन्त 'तमें प्रत्यय 'इल्ल' के 'इ' की संधि; ३-३१ से प्राप्त पुल्लिग रूप 'त्तिल्ल' में स्त्रीलिंग-रूप निर्माणार्थ 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति और ३.४१ से संबोधन के एक वचन में प्राप्त रूप 'तत्तिल्ला' के अन्त्य स्वर 'श्रा' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर अविणयतत्तिल्ले रूप सिद्ध हो जाता है।
'न' अध्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-4 में की गई है। 'छाया' को सिद्धि सूत्र-संख्या १-२४९ में की गई है। 'भए' की सिद्धि सूत्र-संख्या २-१९९ में की गई है।
एतावत्या संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप इतिश्राए होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१५६ से 'एतावत्' के स्थान पर 'इत्ति' आदेश; ३-३१ से स्त्रलिंग अर्थ में 'इच्चिन' के अन्त में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२६ से सप्तमी विभक्ति के एक पचन में अकारान्त स्रोलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'कि' के स्था. नीय रूप 'या' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर इसिमाए रूप सिद्ध हो जाता है ।
'जात' 'श्री' को सिद्धि सूत्र-संख्या १-१७२ में की गई है।
विरचयानि संस्कृत क्रिया पद का रूप है। इसका प्राकृत रूप विरएमि होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'च' का लोप; ४-२३६ से संस्कृत विकरण प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में 'अ' विकरण प्रत्यय की प्राप्ति; ३-१५८ से विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'ए' को प्राप्ति और ३-१४१ से वर्तमान काल के एक वचन में तृतीय पुरुष में 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विरामि रूप सिद्ध हो जाता है।
नमस्तले संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नहयों होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'भ'