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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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'खलु' संस्कृत अव्यय है । इसका प्राकृत रूप 'खु' होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१५ से 'खलु' के स्थान पर 'खु' आदेश की प्राप्ति होकर 'रघु रूप सिद्ध हो जाता है।
श्रियः संस्कृत षष्ठयन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप सिरीए होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राग्नि; २.१०४ से प्राप्त 'स' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति, और ३-२६ से पछी विभक्ति के एफ वचन में दीर्घ इकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'उस्’ के स्थानीय रूप 'यः' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सिरीए रूप सिद्ध हो जाता है।
'न' अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-5 में की गई है। णवरं (-बकल्पिक रूप-णवर) की सिद्धि सूत्र-संख्या २-१८७ में की गई है।
संग्रहीता संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप संगहिना होता है। इसमें सूत्र-संख्या १.१२६ से '' के स्थान पर 'अ' की प्राप्रि; १.१७७ से 'स्' का लोप; और !-१०१ से 'हो' में चित्त दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति होकर संगहिआ रूप सिद्ध हो जाता है।
एतम् संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप एवं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १:१७४ से १-१७७ से 'तू' का लोप; ३-५ से द्वितीया विमक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और .१-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर ए रूप सिद्ध हो जाता है।
हसति संस्कृन सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप हसइ होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-१३६ से वर्तमान काल के एक वचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हसइ रूप सिद्ध हो जाता है।
जलधरः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप जलहरो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१५७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जलहरो रूप सिद्ध हो जाता है।
धूमपटल: संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप धूमवडलो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व', ५-१६५ से 'ट' के स्थान पर 'ड' और ३-२ से प्रथमा विमक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर धूमपडलो रूप सिद्ध हो जाता है।
सरितुम संस्कृत हेत्वर्थ कृदन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप तरी होता है । इसमें सूत्र संख्या ४-३६ से मूल धातु 'तर' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति. ३-५५७ से प्रात विकरण प्रत्यय 'अ' को .'इ' की प्राप्ति, १-४ से प्राप्त हस्व 'इ' के स्थान पर दोघं 'ई' की प्राप्ति, १-१५७ से द्वितीय 'त' का लोप और १-२३ से अन्त्य हलन्त 'म्' का अनुस्वार होकर तरी रूप सिद्ध हो जाता है।
'ण' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या २-१८० में की गई है।