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*प्राकृत व्याकरण *
विज्ञातम, संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप पिण्णार्य होता है । इसमें सूत्र संख्या २-४२ से 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २.८ से प्राप्त 'ण' को द्वित्व ' ण ण' की प्राप्ति; १-२७७ से 'तु' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त' के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर विण्णायं रूप सिद्ध हो जाता है॥२-१ ॥
थू कुत्सायाम् ॥२-२००॥ धू इति कुत्सायां प्रयोक्तव्यम् ॥ धू निल्लज्जो लोनो॥ अर्थः-'कुरसा' अर्थात् निन्दा अर्थ में घमा अर्थ में 'थू' अव्यय का प्रयोग किया जाता है । जैसे:-थू ( निन्दनीयः ) निर्लज्जः लोकः = थू निल्लज्जो लागी अर्थात निलज व्यक्ति निन्दा का पात्र है। (घृणा का पात्र है) 'शू' प्राकृत भाषा का रुद रूपक और रूढ अव्यय है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है।
गिर्लजः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप निल्लजो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-७६. से 'र' का लोप; २-८८ से लोप हुए 'र' के पश्चात शेष रहे हुए 'ल' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग मे संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर निल्लज्जो रूप सिद्ध हो जाता है। लोभी रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१५७ में की गई है ।।२-२००॥
रे अरे संभाषण-रतिकलहे ॥२-२०१॥ अनयोरर्थयार्यथासंख्यामती प्रयोक्तव्यौ ॥ र संभाषणे । रे हिश्रय मडह-सरिया ॥ अरे रति-कल है । अरे मए समं मा करंसु उवहासं ।।
__ अर्थ:-प्राकृत साहित्य में रे' अव्यय 'संभाषण' अर्थ में-'उद्गार प्रकट करने' अर्थ में प्रयुक्त होता है और 'अरे' अव्यय 'प्रीतिपूर्वक कलह' अर्थ में रति-क्रिया संबंधित कलह' अर्थ में प्रयुक्त होता है। जैसे:-'' का उदाहरहा:-रे हृदय ! मतक-सरितारे हिअय! महह-सरिया"अर्थात् अरे हृदय ! अल्पजल पालो नदी (वाक्य अपूर्व है)। 'अरे' का उदाहरण इस प्रकार है:-अरे ! मया समं मा कुरु उपहास - अरे ! मए समं मा करेसु उचहासं अर्थात अरे ! तू मेरे साथ उपहास (रति कलह) मत कर ।
'रे' प्राकृत साहित्य का रूढ-श्रर्थक और रूढ रूपक अव्यय है; अतः इसकी साधनिका की आवश्यकता नहीं है।