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* प्राकृत व्याकरण -
२-१५९ से वैकल्पिक रूप से एवं कम से क्ष-अप' में 'ग्यम्' और 'हिमम्' प्रश्पयों की प्राप्ति, प्राप्त प्रत्ययों में 'इ' इस्मक होने से प्राप्त रूप 'मगा' में से अस्प 'या' का छोप, १-५ से शव रूप मण' के साथ प्राप्त प्रत्यय रूप 'अयम्' और 'इअम्' को ऋमिक संधि, १-१८ से द्वितीय रूप 'णिअम्' में स्थित 'ब' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और १-२३
से ट व्यापान '' माना होकर मम ये जोनों रूप मणयं और मणिय सिद्ध हो जाते है।
तृतीय रूप-(भमाक् - ) मणा में सत्र संख्या १-२२८ है न' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य हलम्त म्यञ्जन 'क' का लोप होकर मणा रूप सिद्ध हो जाता है । २-१६९ ॥
मिश्राडडालिगः ॥२-१७०॥ मिश्र शब्दात् स्वार्थे डालियः प्रत्ययो वा भवति || मीसालिअं । पक्षे । मीसं ॥
अर्थ:-संस्कृत शव मिश्न' के प्राकृत रूपान्तर में 'स्व-अर्थ' में वैकल्पिक रूप से 'लिभ' प्रत्यय को प्राप्ति. होती है। हालिप्रत्यय में आदि ''संशक होने से 'मिस' में स्थित अन्त्य 'अ' की संज्ञा होकर तत्पश्चात 'मालिब' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार :--मिश्नम् = मोलिभ और वैकल्पिक पक्ष होने से भीसं रूप भी होता है ।
मिश्रम संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप मसालि और मीस होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सुत्र प्रक्ष्या २-७९ से 'र' का लोप, १-४३ से हस्व स्वर 'इ' के स्थान पर दीर्ध स्वर 'ई' को प्राप्ति, १-२६० से शके हमान पर 'स' की प्राप्ति, -१७० से स्व-अर्थ में 'डालिम आलिअंत्यय की प्राप्ति, प्राप्त प्रत्यय में '' इत्संशक होने से पूर्वस्थ '' में स्थित 'अ' क' हरमंझा, १-५ से प्राप्त रूप में स्' के हलन्त 'स' के साथ प्राप्त प्रत्यय 'आलिम' के 'या' की संधि, ३-५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में भकासात भकक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्मान पर 'म' प्रायप की प्रारिस और १-२३ से प्राप्त 'नका अनुस्वार होकर प्रथम रूप मीसालि सिद्ध हो भाता है। द्वितीय रूप मीसं की सिद्धि इत्र संख्या १-४ में की गई है। २-१७०॥
रो दीर्घात् ॥२-१७१॥ दीर्घ शब्दात् परः स्वार्थे रो वा भवति ॥ दीहरं । दोहं ॥
अर्थ:-संस्कृत विशेषणात्मक क्षम्य दीर्थ' के प्राकृत रूपान्तर में 'स्व- अर्थ में वैकल्पिक रूप से '' प्रत्यय की प्राप्ति होती हूँ। मे:-- दोधम् बोहरं अथवा वीह ।।
दीर्घ संस्कृत विशेषण रूप है । इसके प्राकृत-रूप-(स्व-अर्थ-धोषक प्रत्यय के साथ)-दोहर और दोहं होते है। हममें सूत्र संख्या २-७१ से 'र' का लोप, १-१८७ से 'ध' के स्थान पर की प्राप्ति, २-१७१ से स्व-अर्थ में वैकल्पिक रूप से प्रत्यय की प्राप्ति, ५-२५ से अपमा विभक्ति एकवचन में सकारास असक लिंग में 'सि'