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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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मुदम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत कप कुमुवं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'ई' का लोप ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक बबन में अकारान्त नपुसक लिंग में "सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कुमुरूप सिद्ध हो जाता है।
इस सस्कृत सहशता वाचक अल्पय रूप है । इसका प्राकृत रूप मिव होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१८२ से 'इव' के स्थान पर 'मिष' आदेश वैकल्पिक रूप से होकर मिव रूप सिब हो जाता है।
चन्दनम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप बनणं होता है । इसमें सब-संख्या ३.२२८ से द्वितीय 'न' के स्थान पर ण' की प्राप्ति और शेष सानिका उपरोक्त कुमुझं के समान ही होकर चन्द्रर्ण स्प सिद्ध हो जाता है। सं० इवः पिब' भव्यय की साधनिका उपरोक्त 'मित्र' अभ्यय के समान ही होकर विष अभ्यय सिद्ध हो जाता है।
हंसः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप हंसो होता है । इसमें पत्र संख्या ३.२ से प्रश्चमा विभक्ति के एक पखन में अकारसम्ल पुलिलग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'मो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हंसो रुप
सिद्ध हो जाता है। सं० इष'विव' अव्यय की सानिका उपरोक्त 'मित्र' भव्यप के समान ही होकर विव भव्यय सिद्ध हो जाता है।
सागर: संस्कृत रूप। इसका प्राकृत रूप सारो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १.१७७ से 'म' का लोए और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुस्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ'
प्रत्यय की प्राप्ति होकर सारो रूप सि हो जाता है। सं० इव'ख' अध्यय की सावनिका उपरोक्त भिष' सव्यय के समान ही होकर व अव्यय सिद्ध हो जाता है ।
क्षीरोदः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप चोरोओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-३ से 'भ' के स्थान पर ''को प्राप्ति: १-१७७ से ''कालोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुस्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर खीरीजी रूप सिद्ध हो जाता है।
शेषस्य संस्कृत पाठचन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप सेसस्य होता है। इसमें सूत्र-संस्पा १.२६० से रोगों प्रकार के "' और ' के स्थान पर कम से 'स्' की प्राप्ति; ३-१० से षष्ठी विभक्ति के एक वरन में अकारान्स पुल्लिग में संस्कृत प्रत्यप 'कस्' के स्थानीय रूप 'स्य' के स्थान पर प्राकृत में विश्व स्स' की प्राप्ति होकर सेसस्य रूप सिद्ध हो जाता है।
इय संस्कृत अध्यय रूप है। इसका प्राकृत एक रुप 'व' भी होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१८२ से 'इ' के स्थान पर '' का आदेश होकर वरूप सिद्ध हो जाता है।
निर्मोक संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप निम्मोओ होता है । इसमें सूत्र संख्या २.७९ ' का लोप; ५-८९ से लोप हए के पश्चात् शेष रहे हए 'म'को विस्व 'म्म्' को प्राप्ति; १-१७७ से ' का लोप; और
३-२से प्रपमा विभक्ति एकचन में अकारान्त पहिलग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर ! निम्मोओं रूप सिद्ध हो जाता है।
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