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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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भविष्यात संस्कृत कियापद का रूप है। इसका प्राकृत हुग्न होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-६१ से भवि के स्थान पर 'ई' आवेश; और ३-१७७ से भविष्यत्-काल-वाचक प्रत्यय 'ष्यति' के स्थान पर प्राकृत में ' धावेश को प्राप्ति होकर हुज रूप सिद्ध हो जाता है।
गना रूप की मिमित्र मोहा २.१% में की गई है।
न संस्कृत अध्यय है। इसका प्राकृत रूप भी 'न' ही होता है। इसमें सूत्र-संरूपा १-२२९ से 'न' का 'ग' वैकल्पिक रूप से होने से 'स्व' का अभाव होकर न रूप सिद्ध हो जाता है।
भविष्यति संस्कृत क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप होही' होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४.६० से भूभव के स्थान पर 'हो' आदेश ३-१७२ से संस्कृत में प्राप्त होने वाले विध्यत-काल वाचक विकरण प्रत्यय 'रण्य' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' आदेश; ३-१३९ से संस्कृत प्राप्त यत्यय 'ति के स्थान पर 'इ' प्रत्यय का गवेश; और १-५ की वृत्ति से एक ही एक में रहे हए 'हि' में स्थित इस्व स्वर 'ह' के साथ प्रांगें प्राप्त प्रत्यय रूप ' की संधि होने से धोनों के स्थान पर दोध स्वर 'ई' को प्राप्ति होकर होही रूप सिद्ध हो जाता है।
भणनशीला संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप भणिगे होता है। इसमें सूत्र-संख्या २.१४५ से 'शीतधर्म-साधु अर्थक संस्कृत प्रत्यय 'मशील' के स्थान पर 'इर' आदेश १-१०सेज' में स्थित ब हका मागे प्राप्त प्रत्यय 'हर' को होने से लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'ण' में प्राप्त प्रत्यय 'र'को '' को संवि ३-२९ से प्राप्त पुल्लिा रूप को स्त्रीलिंग बाधक रूप बनाने के लिये 'हो' प्रत्यय की प्राप्ति, प्राप्त प्रस्पय हो' में 'ई'इसंज्ञक होने से 'इर' के अन्य स्वर 'अ' की इत्संज्ञा होकर 'अ'कालोप; १-५ से प्राप्त हलन्तर में उपरोक्त स्वोलिग वाचक वीर्घ स्वर ' को संषि और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में दीर्घ इकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्पान पर वीर्घ इकारान्स रूप हो ययावत् स्थित रहकर भणिरी रूप सिर हो जाता है।
सा सर्व मम रूप को सिसि सब-संस्था में की गई है।
स्विचाति संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप सिम्जह होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'व्' को लोप; २-०८ से 'य' मा लोप; ४.२२४ से 'द्' के स्यान पर द्विस्थ 'उज' को प्राप्ति; और ३-१३९ से वर्तमान काल के एक वचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर सिज्जड़ रूप सिद्ध हो जाता है।
तुह सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-८ में की गई है।
काय संस्कृत रूप है । इसका रूप कज्जे होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से वीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर इस्य 'म' की प्राप्तिः २-२४ से संयुक्त पयजन के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति २.८९ से प्राप्त 'ज' को द्विस्व 'जज' की प्राप्ति ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एक वचन में अकारान्त में संस्कृत प्रत्यय बिधान पर प्राकृत में
प्रत्यय को प्राप्ति प्राप्त प्रत्यय में इस्संझक होने से पूर्व में स्थित 'ज' अन्त्य स्वर नकी इस्संहा होकर
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