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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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[४६१ तेन (लक्ष्यो कृत्य इति अ\) संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप तेण होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' को प्राप्ति होकर तेण रूप सिद्ध हो जाता है ॥२-१८३॥
गइ चे चित्र च्व अवधारणे ॥२.१८४॥ एतेऽवधारणे प्रयोक्तव्याः ।। गए राइ । जं चेत्र मउलणं लोअणाणं । अणुबद्ध तं चित्र कामिणाणं । सेवादित्वात् द्वित्वमपि । ते चित्र धन्ना । ते च्चे सुपुरिसा ।। च्च ॥ स यच्च सवेण | सच्च सीलेण ।।
अर्थ:-जब निश्चयार्थ-(ऐसा ही है)-प्रकट करना होता है। तब प्राकृत साहित्य में 'पई' 'चेन' 'चित्र' 'च' अभ्यय का प्रयोग किया जाता है । उपरोक्त चार अम्पयों में से किसी भी एक अध्यय का प्रयोग करने से 'अव. भारण-अर्थ' अर्थात् निश्चयात्मक अर्ष प्रकट होता है । इन अप्रपों से ऐसा ही है ऐसा अर्थ प्रति-फलित होता है। उदाहरण इस प्रकार है:-त्या एष गईए ण अयार गति से ही; यत् एव मुकुलनं लोचन नाम् = अंचे पडसर्भ लोअगाणं अर्थात् अखिों को जो अर्ध-लिलावट हो; अनुबद्धं तत एव कामिनीभ्यः अणुबह त चित्र कापिणोणं अर्शत स्त्रियों के लिये ही यह अनुबद्ध है इस्यादि । सूत्र-संख्या ३-९९ वाले सेवादित्वात्' सूत्र से 'अ' और 'चिन' अम्पयों में स्थित 'घ' को विश्व 'च्च' की प्राप्ति भी हो जाया करता है । उमे:-ते एवं पाया ते चित्र पन्ना अर्यात वे धन्य ही हैं। ते एम पुरुषाः .. ते स्वेज सुपुरिसा अर्थात् वे सत्पुरुष ही हैं । 'ब' निश्चय वाचक अम्पप के सबाहरण इस प्रकार है:-स एव च रूपेण = स च य रुवेष अति रूप से हो मह (आवरणोय आदि है); और स एव शरेलेन सब सोलेण अर्थात् शील (धर्म) से ही वह (पूज्य आदि) है; इत्यादि ।
__ गत्या संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप गईए होता है । इसमं सत्र-संख्या १-१७७ से (मूल रूप में स्थित-पत्ति + 1) '' का लोप और ३-२९ से तृतीया विभक्ति के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थानीय रूप 'आ' के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति एवं ३-२९ से ही प्राप्त प्रत्यय 'ए' के पूर्व में स्थित हस्व स्वर के स्थान पर शोध स्वर की प्राप्ति होकर गईएसप सिद्ध हो जाता है।
एव संस्कृत अवधारणार्थक भव्यय रूप है । इसका प्राकृत रूप '' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१८४ से 'एल' के स्थान पर 'गद' को प्राप्ति होकर पाई रूप सिद्ध हो जाता है।
जं सर्वनाम रूप की सिद्धि सत्र संख्या १.४ में की गई है।
अ अव्यय रूप को सिद्धि सूत्र-संख्या १-७ में की गई है।
मुकुलनम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप प्रउलग होता है । इसमें सत्र संस्पा १-१०७ से प्रथम 'उ' के स्थान पर 'अ'की प्राप्ति: १-१७७ से 'क' का लोपः १-२२८ से 'न' के स्थान पर '' की प्राप्तिः ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसकलिग में से प्रत्यय के स्थान पर'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर मजलयं रूप सिद्ध हो जाता है।