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# प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित
अर्थ:-- संस्कृत साहित्म में 'जहर' 'अनन्तरं' अध्यय का प्रयोग होता है। वहां प्राकृत-साहित्य में इसी वर्ष मं 'वर' अव्यय का प्रयोग किया जाता है। इसके बाद ऐसे अर्थ में 'नवरि' अम्मय प्रयुक्त किया जाता हूँ । जैसे:- अनन्तरम् च तस्य रघुपतिनावरि अ से रहु-वइण । अर्थात् 'और पश्चात् रघुपति से उसका' ( हिल संभावन किया गया ) । कोई कोई व्याकरणाचार्य संस्कृत अम्पम 'केवलम् और अनन्तरम्' के लिये प्रकृत में 'नवर और
वरि' दोनों का प्रयोग करना स्वीकार करते है।' 'नवर' अर्थात् "केवलम् और अनन्तरम् ; " इसी प्रकार से 'नर्वार' अर्थात् 'केवलम् और अनन्तरम्' यो अर्थ किया करते हैं। इसी तात्पर्य को लेकर 'केवलानन्तर्यायं योणंवरणवरि' ऐसा एक ही सूत्र बनाया करते हैं; सबसार उनके मत से दोनों प्राकृत अध्यय दोनों प्रकार के संस्कृत अभ्यय के तात्पर्य को बतलाते हैं । अनन्तरम् संस्कृत अध्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'नवरि' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-९८८ से 'अनन्तरम्' के स्थान पर 'नवरि' आदेश की प्राप्ति होकर णपरि रूप सिद्ध हो जाता है ।
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'अ' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है।
तस्य संस्कृत षष्ठपंत सर्वनाम रूप हैं। इसका प्राकृत रूप 'से' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८१ से संस्कृत मूल शब्द 'तत्' के साथ संस्कृत की षष्ठी विभक्ति के एक वचन में 'ङस्' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर प्राकृत में 'तत् + स् के स्थान पर 'से' का आवेश होकर से रूप सिद्ध हो जाता है ।
रघुपतिना संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप
बना होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से '' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व्' की प्राप्ति: १-१७७ से 'तु' का लोप और३-२४ से तृतीया विभक्ति के एक वचन में इहारात पुल्लिंग में संस्कृत प्रस्थय 'का' के स्थान पर प्राकृत में 'चा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रह वइणा रूप सिद्ध हो जाता है ।। २-१८८ ।।
लाहि निवारणे ॥२- १८६॥
अलाहीति निवारणे प्रयोक्तव्यम् || मलाहि किं वाइएस लेख ||
अर्थः-- 'मना करने' अर्थ में अर्थात् 'निवारण अथवा निषेध' करने अर्थ में प्राकृत में 'अलाहि' अव्यय का प्रयोग किया जाता है । जैसे--मा, किम् वाचितेन लेवेन : अलाहि; कि वाइएण सेहेन अर्थात् मत ( पड़ी ), - पले हुए लेख से क्या होने वाला है) ? 'अलाहि' प्राकृत साहित्य का अध्यय है; रूक और स्व-रूप होने से सानिका की आवश्यकता नहीं है।
रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२९ में की गई है।
वाचन संस्कृत तृतीयात विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप बाइएन होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'च' और स' का लोप ३-६ से तुतीया विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'ट' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१४ से प्राप्त प्रश्यप 'न' के पूर्व में स्थित एवं लुप्त हुए 'तू' में से क्षेत्र रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर बाइएण रूप सिद्ध हो जाता 1