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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर रोस रूप सिद्ध हो जाता है ।। २-१९० ॥ माई मार्थे २ - १६१ ॥
माई इति मार्थे प्रयोक्तव्यम् || माई काही
सं । माऽकार्षीद् रोषम् ॥
अर्थ :- 'मा' अर्थात् मत' याने नकारार्थ मे वा निषय-अर्थ में प्राकृत किया जाता है। जैसे:-माई काही रोसं मा कार्षीद् शेषम् अर्थात् उसमे
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भाषा में 'बाई' अभ्यप का प्रयोग नहीं किया । इत्यानि ।
मा संस्कृत अन्य रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भाई' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१९१ से 'मा' के स्थान पर 'माई' आदेश की प्राप्ति होकर माई का सिद्ध हो जाता है।
rera संत कर्मक क्रियापद का रूप है । इसका माकूल रूप 'काहीअ' होता है। इसमें पुत्र संख्या ४-२१४ से मूल संस्कृत धातु रूप कृ' अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'आ' आदेश की प्राप्ति और ३-१६२ से मूतकाल बोधक प्रत्यय 'होय' की प्राप्ति होकर काहीअ रूप सिद्ध हो जाता है ।
रोर्स कप की सिद्धि सूत्र संख्या २-१९० में की गई है ।। २०१९१ ।।
हद्धी निर्वेदे ॥२- १६२ ॥
ही इत्यव्ययमत एव निर्देशात् हा धिक् शब्दादेशो वा निर्वेदे प्रयोक्तव्यम् ॥ हद्धी हृद्धी | हा धार धार ||
अर्थ:- 'ही' यह प्राकृत साहित्य में प्रयुक्त किया जाने वाला अव्यय है। इसका प्रयोग 'निवेद'
त् प्रकट करने में अथवा 'पश्चाताप पूर्ण व प्रकट करने में किया जाता है। संस्कृत अभ्यय 'हा- बिक' के स्थान पर भी बैंकक रूप से इसका व्यवहार किया जाता है। जैसे:-हा-बिक ! हा ही ही 11 पक्षान्तर में हा बाह] हा बाह 1! भी होता है। मानसिक विनता को प्रकट करने के लिये इसका उच्चारण ही बार होता है ।
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हा ! धिक् संस्कृत अध्यय है। इसके प्राकृत रूप 'हसी' अथवा 'हा पाह' होते हैं। इसमें सूत्र संख्या २-१९२ से 'हा । चिक' के स्थान पर 'ही' अथवा हा! घाह ! की महेश प्राप्ति होकर हवी और हा धाह रूपों को सिद्धि हो जाती है ॥२- १९२७
वे
॥१२- १६३॥ प्रयोक्तव्यम् ॥
भय वारण- विषादे भय वारण विषादेषु बेच्ने इति वेवेति भये वेष्वेत्ति कारणे जूर अ वेव्वे चि ॥ उल्ला विरोद धि तुहं वेत्रे चि मयच्छि किं अं १ ॥ किं जन्जावन्तीए उम्र जुरन्तीए किं तु भीआए । उम्बाडिरी वेवेति सीएँ भणिअं न विम्हरिमो ॥ २ ॥