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* प्राकृत व्याकरणा*
में संस्कृत प्रस्मय 'हि' के स्थान पर प्राकृत में 'उ' प्रत्यय की प्राप्ति प्राप्त प्रत्यय '' में ' संज्ञक होने से प्रत्यय के पूर्व में स्थित लुफा 'क' के शेवांश 'अ' को संज्ञा के कारण अ' का लोप होकर सिविणए रूप सिद्ध हो जाता है।
भाणिता: संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप भणिआ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से त' का लोप, ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'जस्' का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'मह' प्रत्यय के पूर्व में स्थित 'ब' के स्थान पर वीर्घ 'आ'को प्राप्ति होकर भणिमा रूप सिद्ध हो जाता है ।।२-१.८६॥
एवर केवले ॥२-१-१८७॥ केवलाथें णवर इति प्रयोक्तव्यम् ॥ णवर पिआई चित्र णिव्वडन्ति ॥
अर्थ:-संस्कृत अध्यय 'केवल' के स्थान पर प्राकृत में 'णवर' अथवा 'जवर" अध्यय का प्रयोग किया जाता । जैसे गाना रिमादि म अगिरगार) पिभाई चिअ णिस्वस्ति अर्थात् केवल प्रिय (वस्तुएँ। ही (सार्थक) होती है।
केवलम् संस्कृत निर्गीत संपूर्ण रूप-एकार्यक' अध्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गयर' अपवा 'वर' होता है । इसमें सत्र-संख्या २-१८७ से 'केवलम्' के स्थान पर 'पवर' अथवा 'गवर' पादेश की प्राप्ति होकर णवर अषमा णवर कम सिद्ध हो जाता है।
प्रियाण संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप पिआई होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से '' का लोप; ३-२३ से प्रथमा विभक्ति के बहु बबन में अकारान्त नपुसकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थानीय रूप 'मामि' के स्थान पर प्राकृत में प्रत्यय की प्राप्ति और ३.२६ से 'ही' प्रापा प्रत्यय ' के पूर्व में स्थित लुप्त 'म्' के शेषांश हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर 'श्रा' को प्राप्ति होकर पिआई रूप सिद्ध हो जाता है।
चिअपव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या २-९९ में की गई है।
भवन्ति संस्कृत अकर्मक क्रिया पद का रूप है। इसका प्राकृत रूप णिन्दन्ति (भी) होता है। इसमें सूत्रसंख्या ४-६२ से 'भव' धातु के स्थान पर 'णिस्व' रुप का आवेश; ४-२३९ से झुलात वजन 'इ' में विकरण प्रत्यय '' की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमानकाल के बहुवचन में प्रथम पुरुष में "न्ति' प्रत्यय की प्रारित होकर णिष. डन्ति प सिद्ध हो जाता है।
अानन्तर्ये गवरि ॥२-१८८॥ आनन्तर्ये गवरीति प्रयोक्तव्यम् || णवरि अ से रहु-वरणा ॥ केचित्तु केवलानन्तर्यार्थयो वर-णवरि इत्येकमेव सूत्र कुर्वते तन्मते उभावणुभयाऔं ।।