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प्रकट करना हो; अथवा किसी प्रकार के "सत्य" की अभिव्यक्ति करनी हो तो "हन्दि" अव्यय का प्रयोग किया जाता हे प्रयुक्त 'हरिद' को देखकर प्रसंगानुसार उपरोक्त भावनाओं में से उपयुक्त 'भावना' सूचक अर्थ को समझ लेना चाहिये। उदाहरण इस प्रकार है:
* प्राकृत व्याकरण *
संस्कृत:- हन्दि (विना-अर्थ) पर नतः स न मानितः
वि (विकल्प अर्थ ) भविष्यति इदीनाम्
हन्दि (पाप) - न भविष्यति मानवीसा
साविति हवि (वय अ-सपाचवा) तकायें |
प्राकृत-हृदि चणेन सोमाणिओ कि एला । हन्दि न हो हो भणिरी साजिद हन्दि तुह
हिन्दी अर्थ - कि उस (नायक) ने उस (नायिका) के पैरों में नमस्कार किया गया तो भी उस (नायिका) ने उसका सम्मान नहीं किया अर्थात् यह (नायिका) नरम नहीं हुई। ज्यों को स्पों रूठी हुई ही रही। इस समय में अब यर होगा ? यह पश्चाताप की बात है कि वह (गायिका) बातचित्त भी नहीं करेगो एवं निलय हो तुम्हारे कार्य में वह नहीं पसीजंगा । 'हृन्दि' अध्यय का अर्थ 'यह सत्य ही है' ऐसा भी होता है ।
'हदि' प्राकृत साहित्य का रुद्र अर्थ
है। अतः सावनिक की बयकता नहीं है।
चरणे संस्कृत सप्तम्यन्तरूप है। इसका प्राकृत कर चल होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२५४ सेके स्थान पर ''३-११से विभक्ति के एक वचन में अकारान्त में संस्कृत प्रत्यय' के स्थान पर प्रकृत में 'क' प्रत्यय की प्राप्ति'' में एक होने से में स्थित अन्य स्वर 'अ' की इशा होकर इसका कोष और १-५ से प्राप्त हलन्त जन '' में प्राप्त प्रश्यय 'ए' को संधि होकर चलणे रूप सिद्ध हो जाता है
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नतः संस्कृत शिवरूप है। इसका प्राकृत रूप पर 'ग' की प्राप्ति १-१७७ से '' का लीपः १-३० से होने में पूर्व में स्थित 'अ' की इस्सा होकर
होता है। इसमें संख्या १-२२९ से 'न' के स्थान विसर्ग के स्थान पर 'को' आदेश प्राप्त 'डो' में 'ए' ओ रूप सिद्ध हो जाता है।
'सो' सर्वनामरूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-९७ में की गई है।
न संस्कृत अध्यय है। इसका प्राकृत रूप ण होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२९ से 'न' के स्थान पर
'' आवेश की प्राप्त होकर 'पण' प सिद्ध हो जाता है।
मानतः संस्कृत विशवण रूप है। इसका प्राकृत 'म' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति १-१७७ से तू का लोप
रूप पावित्री होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से १-२७ से विसर्ग के स्थान पर 'डो' आदेश एवं प्राप्त 'डो' में 'कृ' इक होने से पूर्व में स्थित 'अ' की इरा होने से लोप होकर माणिक रूप सिद्ध हो जाता है।