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मिमोरो। कभी कभी संस्कृत शब्द कभी कभी संस्कृत शब्दों
डुओ।
तेवपणा; त्वरित् तेआलीसा व्युरसर्गः विगो उत्सर्जनम् = योसिरणं; बहिः अथवा मैथुनम् बद्धा; कार्य=णामुक्कसिअं; क्वचित कस्य उद्दहति मुथ्यद अपस्मारः = वम्लो उत्पलपलकम्बु धिकधिक-छिछि अथवा षिटि धिगस्तु = धिरस्य प्रतिस्पर्धा-पडिसिद्धि अथवा पाडिसिद्धी स्यासकः चच्चि; मिलय: = मिलणं; मघवान्मघोणं साक्षी समिणो जन्म अम्मण महान्महन्तो भवान् = भवन्तो; आशो: आसीसा। कुछ एक संस्कृतों में स्थित 'ह' के स्थान पर देशज शब्दों में कभी 'दु' को प्राप्ति होती हुई देखी जाती है और कभी 'भू' की प्राप्ति होती हुई पाई जात है। जैसे:- बृहत्तरम् वड्डयर और हिमोर: में रहे हुए 'ल्ल' के स्थान पर 'हूँ' का सद्भाव पाया जाता है; जैसे:-शुल्लक, में स्थित 'घोष अल्प आण' प्रयत्न वाले अक्षरों के स्थान पर देशज शब्दों में 'घोष महाप्राण प्रश्न वाले अक्षरों का अस्तित्व देखा जाता है; अर्थात् वर्गीय तृतीय अक्षर के स्थान पर चतुर्थ मझर का सद्भाव पाया जाता है; जैसे:गायनः धायणो : बढ़ो और फफुवम् ककुषं इत्यादि । अन्य देशज एवं रूढ़ शब्दों के कुछ एक उदाहरण इस प्रकार हैं:--अकाण्डम् अत्यषक: ज्जावती लज्जालुइगी; कुतूहलम् = कु चुतः मायन्दो; कोई कोई ब्याकरणाचार्य देशज शब्द मायन्दी का संस्कृत रूपान्तर माकन्दः भी करते है । सर्वया रूढ नेवाज शब्द इस प्रकार है:विष्णुः भट्टियो मवशानम् करसी; असुरा: खेड; पौष्परजः तिगिच्छि; विनममलं समर्थ: एक्कलो; पण्डकः लच्छो; कर्पास: पलही; बली उज्जलो; ताम्बूलम् असुरं पुइवली = छिछिई; शाखा = साली इत्यादि । बहुलम् अर्थात् वैकल्पिक पक्ष का उल्लेख होने से 'गौ' का 'गउओ' रूप भी होता है; यह स्थिति अन्य शब्द रूपों के सम्बंध में भी जानना । संस्कृत शब्द 'गोला' से वेशज शब्द 'गोला' बनता हूं और 'गोदावरी' से 'गोआवरी' बनता है । अनेक वेशन शकर ऐसे हैं जो कि महाराष्ट्र प्राप्त और विदर्भ प्रान्त में बोले जाते हैं; प्रांतीय भाषा अमित होने से इनके "संस्कृत-पर्यायवाचक शब्द" नहीं होते हैं। कुछ एक उदाहरण इस प्रकार है-हित्य ललक, विहिर, पञ्चडिभ, उध्येश्ड, मडप्फर, पड्डिहर, अट्टम बिह्वप्फड अनल, हल्लम्फल्ल इत्यादि ऐसे कुछेक प्रान्तीय रूढ़ क्रिया शब्दों के इसी तरह से कृष्ट, घृष्ट, वाक्य एवं क्विप प्रत्ययान्त शब्दों का से
अगया खेल
का अर्थ प्रान्तीय जनता के बोल-चाल के व्यवहार से जाना जा सकता है। अर्थ भी प्रान्तीय जनता के बोल-चाल के व्यवहार से ही जाना जा सकता है। विद्वस, वाचस्पति, विन्टर अवस्, प्रचेतस् प्रोक्त और प्रोत इत्यादि शब्दों का कि- अग्निचित्, सोमसुत्, सुम्ल और सुम्ल इत्यादि ऐसे शब्दों का तथा पूर्ववर्ती कवियों ने जिन शब्दों का प्रयोग नहीं किया है उनका प्रयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि इसने अर्थ क्लिष्टतर तथा प्रतीति विषमता जैसे दोषों की उत्पत्ति होती है। अतएव सरल शब्दों द्वारा अभिषेय अर्थ को प्रकट करना चाहिए । कृष् के स्थान पर 'कुशल'; वचस्पति के स्थान पर 'गुरु' और विष्टर वा के स्थान पर 'हरि' जैसे सरल शब्दों का प्रयोग किया जाना चाहिये। घुष्ट शय के साथ यदि कोई उपसर्ग जुड़ा हुआ हो तो इसका प्रयोग किया जाना वांछनीय हो । जैसे:-मंबर-तर-परिघृष्टम् मन्दश्य परिघट्ट दिवस निघुष्टाना सि-निहट्ठाण इत्यादि इन उदाहरणों में 'घुण्ड = घट्ट wear हरु प्रयुक्त किया गया है. इसका कारण यह है कि 'वह' के साथ कम से 'परि' एवं 'नि' उपसर्ग जुड़ा हुआ है; किन्तु उपसर्ग रहित अवस्था में 'घृष्ट' का प्रयोग कम ही देखा जाता हूँ। आषं प्राकृत में घुष्ट का प्रयोग देखा जाता है;
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* प्राकृत व्याकरण *
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