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● प्राकृत व्याकरण
त्रिचत्वारिंशत संस्कृतात्मविधेषण रूप है। इसकृत रूप तेल सूत्र-संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत परिवार के स्थान पर देशज प्राकृत में खालीसा searलीला रूप सिद्ध हो आता है ।
१६ से संचि २७९
व्युत्सर्गः संस्कृत रूप है। इसका अर्थ-प्राकृत रूप विसग्गो होता है। इसमें सूत्रनिवेश होने से संस्कृत-संधि रूप ब्यु' के स्थान पर अभि कप से 'वि' की प्राप्ति २-७३ सेतु' का से रेप'' डोप २-८९ सेपर' के पश्चात् शेष रहे 'य' के स्थान पर द्विस्व की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्रकारात पुल्किा में निप्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विउसग्गो रूप सिद्ध हो जाता है ।
होता है। इसमें रूप का निवास
इयुत्सर्जनम् संस्कृत रूप है। इसका वेदाज प्राकृत रूप दोसिणं होता है। इसमें सूत्र- २१७ से संपूर्ण संस्कृत रूप 'ब्यूसर्जन' के स्थान पर बेशन प्राकृत में 'बोर' रूप का निपात २२८ से 'न' के स्थान पर '' की प्राप्ति ३२५ से मि के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर देशज प्राकृत रूप बोसरणं सिद्ध हो जाता है।
बथुनं संस्कृत अध्ययरूप है। इसका देशज प्राकृत रूप बहिया होता है। इसमें संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रूप में के स्थान पर देशम प्राकृत में 'महिला' रूप का निपात होकर बहिछा रूप सिद्ध हो जाता है
कार्यम् संस्कृत कम है। इसका बेज प्राकृत रूप णामुश्कलिमं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रूप 'कार्य' के स्थान पर वेशन प्राकृत में 'यापुक्कति' रूप का निपातः २-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त नपुंसक लिय में 'तिः प्रत्यय के स्थान पर ' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर देवान प्राकृत अपणामुस्कसि सिद्ध हो जाता है।
क्वचित् संस्कृत अव्यय रूप है. इसका देशज प्राकृत रूप पूर्ण संस्कृत रूप चित् के स्थान पर सेशन प्राकृत में 'कर' ता है।
अपस्मारः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप संस्कृत रूप 'अपस्मार' के स्थान पर वैशन प्राकृत में 'ई' रूप का
कश्यद होता है। इसमें सूत्र संख्या - १७४ से का निवास होकर कत्थइ रूप सिद्ध हो
उदहति संस्कृत सकर्मक क्रिया का है। इसका बेशक प्राकृत रूप मुख्य होता है। इसमें सूत्रसं २-१७४ से आदि वर्ष'' मे गम्' का निपातः २०७० से हन्त व्यञ्जन '' का लोन २-८९ से '' रहे हुए 'व' को दिव्य को प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल के एक वचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बेवाज प्राकृत रूप मुख्य सिद्ध हो जाता है।
को होता है। इसमें सूत्र- २ १७४ से संपूर्ण पक्ष और से प्रथमा विभक्ति में एक