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* प्राकृत व्याकरण *
मुकथा संस्कृत कृदन्त रूप । इसका प्रात या लत्त होता है। इसमें शूध संख्या ४२३७ से 'उ' बर को 'नो' स्वर की गुण-प्राप्ति; २-७७ से 'क' का लोप और २-१४६ से संस्कृत कृदन्त के क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'तुम् प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति; और १-२३ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'म्' का अनुस्वार होकर मो रूप सिद्ध हो जाता है।
अभिस्वा संस्कृत कृदन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप भमित्र होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-६६ से 'र' का लोप; ३-१५७ से 'म' में रहे हुए 'यू' के स्थान पर 'इ' को प्राप्ति; २-१४६ से संस्कृत कृदन्त के 'क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'अत्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त' का लोप होकर भमि रूप सिद्ध हो जाता है।
रमित्या संस्कृत कृदन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप रमित्र होता है। इसमें सूत्र-मरख्या ४-२३६ से हलन्त 'रम्' धातु में म्' में विकरण प्रत्यय रूप 'अ' की प्राप्ति; ३-१५७ से प्राप्त 'म' में रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राति; २-१४६ से संस्कृत कृदन्त के 'क्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'अन्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप होकर रमिअ रूप सिद्ध हो जाता है।
गृहीत्या संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप घेत्त ग होता है । इममें सूत्र-संख्या ४-२१० से 'गृह ' धातु के स्थान पर 'धेत' आदेश और २-१४६ से संस्कृत कृदन्त क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'तूण' की प्राप्ति होकर घेत्तूण रूप सिद्ध हो जाता है।
कृत्या संस्कृत कृदन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप काऊण होता है। इसमें सत्र संख्या ४-२१४ से 'कृ' धातु में स्थित 'ऋ' के स्थान पर 'आ' आदेश; २-१४६ से संस्कृत कृदन्त के तत्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'तूण प्रत्यय की प्राप्ति और १-१७७ से प्राप्त 'तूण' प्रत्यय में से 'त' का लोप होकर काऊण रूप सिद्ध हो जाता है।
मित्या संस्कृत कृदन्त रूप है । इसका प्रकृत रूप भेत्त आण होता है । मूल संस्कृत धातु भिद्' है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३७ से 'इ' के स्थान पर गुण रूप 'ए' की प्राप्ति; और २-१४६ से संस्कृत कृदन्त के 'क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'तुआण' प्रत्यय प्राप्ति होकर भेत्तुआण रूप सिद्ध हो जाता है।
श्रुत्वा संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप सोउआण होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-४ से 'र' का लोप; १-२६० से शेष 'श' का 'स'; ४-२३७ से 'सु' में रहे हुए 'उ' के स्थान पर गुण-रूप 'श्री' की प्राप्ति और ५-१४६ से संस्कृत कृदन्त के तत्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'तुआण' प्रत्यय की प्राप्ति तथा १-१७७ से प्राप्त 'तुश्राण' प्रत्यय में से 'त' व्यजन का लोप होकर सोउआण रूप सिद्ध हो जाता है।
पन्दित्वा संस्कृत कदन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप वन्दित्त होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१४६ से संस्कृत कृदन्त प्रत्यय 'क्वा' के स्थान पर 'तुम्' आदेश; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'म्' का लोप और २८ से शेष 'त' को द्वित्व 'च' की प्राप्ति होकर वन्दित्तु रूप सिद्ध हो जाता है।