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की प्राप्ति १-१७७ से 'तू' और 'क' का लोप १-२६० से 'शु' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति २-१६४ से 'स्व'डिल' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त 'हिक' प्रत्यय में इत्-संज्ञक '' होने से 'लू' में स्थित अन्त्य 'अ' का लोप एवं १५ से प्राप्त 'क' प्रत्यय की 'ह' की प्राप्त हन्त '' में संधि और २६ से संस्कृत तृतीया विभक्ति के एक वचन में प्राप्त 'टा' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति एवं ३-१४ से प्राप्त 'ण' प्रत्यय के पूर्व भ स्थित स्स' के 'अ' के स्थान पर 'ए' को प्राप्ति होकर निजगासो-पल्लविल्लेण रूप सिद्ध हो जाता है।
# प्राकृत व्याकरण
युरी अथवा युरा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पुरिल्लो होता है। इसमें सूत्र संख्या २०१६४ से 'अर्थ' में 'डिल्ल' प्रत्यय की प्राप्तिः प्राप्त 'दिल्ल' प्रत्यय में इत्-संज्ञक ' होने से 'शे' के 'लो' को अथवा 'रश' के 'आ' की इत्संज्ञा १५ से प्राप्त 'इ' प्रश्रय की 'इ' की प्राप्त हल'' में संधि और ३-२ से प्रथम विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पुस्तिका सिद्ध हो जाता है ।
मतिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप महपिउन होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-११३ से संस्कृत रूप 'मम' के स्थान पर 'मह' आवेश १-१७७ से 'त्' का लोपः २ ९६४ से संस्कृत- स्व-अर्थ द्योतक प्रत्यय 'क' के हथान पर प्राकृत में 'डल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त 'डल्ल' प्रत्यय में '' इत्-संज्ञक होने से 'तु' में से सोए हुए '' के पश्चात् शेष रहे हुए स्वर को इत्संज्ञा १-१७७ से 'कृ' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुडिंग में स' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मह-वि उल्हओ का सिद्ध हो जाता है ।
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मुखम् संस्कृत रूप है | इसके प्राकृत रूप महुल्लं और मुहं होते है । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' आदेश २०१६४ 'अर्थ' में 'ल' प्रत्यय को प्राप्तिः प्राप्त शुल' प्रत्यय में ''- होने से प्राप्त 'ह' में स्थित 'अ' को इत्संज्ञा १-५ से प्राप्त हलत 'ह' में प्राप्त प्रत्यय 'जल्ल' के '' की संधि ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर मृ' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रयग रूप मुदुल्लं सिद्ध हो जाता है ।
द्वितीय रूप शुद्ध को सिद्धि सूत्र संख्या २-२८७ में की गई है।
हस्ती संस्कृत रूप हूँ | इसके प्राकृत
हत्युल्सा और हत्या होते हैं। इनमें सूत्र
२०४५ से 'स्त' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति २-८९ से प्राप्त '' के स्थान पर विश्व 'न' की प्राप्ति २९० से प्राप्त पूर्व 'थ' के स्थान पर '' की प्राप्ति २-१६४ से 'अर्थ' में वैकल्पिक रूप से 'गुल्ल' प्रत्यय की प्राति प्राप्त 'ए' प्रत्यय में द' इत्-संज्ञक होने से प्राप्त 'स्व' में स्थित 'अ' को संज्ञा १५ से प्राप्त हरू '' में प्राप्त प्रत्यय 'उहल' के '' की संधि ३१३० से संस्कृत रूप में स्थित द्विषचन के स्थान पर प्राकृत में बहुवचन की प्राप्ति तदनुसार ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त संस्कृत प्रस्थय 'जस्' का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं सुप्त प्रस्थय जस्' के कारण से 'ह' में स्थित अथवा वैकल्पिक पक्ष होने से 'स्थ' में स्थित 'क्ष' स्वर के दीर्घ स्वर का की प्राप्ति होकर हम से हृत्युल्ला और हत्था दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं।