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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सद्दालो रूप सिद्ध हो जाता है।
जटाधान संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप जडालो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१६५ से 'ट' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; २.१५६ से 'वाला-अथक' संस्कृत प्रत्यय वान' के स्थान पर प्राकृत में 'पाल' आदेश; १-५ से प्राप्त 'डा' में स्थित 'श्रा' स्वर के साथ प्राप्त 'पाल' प्रत्यय में स्थिन
श्रा' स्वर की संधि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जडाली रूप सिद्ध हो जाता है।
फटाक्षान, संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप फडालो होता है। इसकी साधनिका उपरोस 'जालो' रूप के समान ही होकर जालोप सिद्ध हो जाता है।
__ रसपाम संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप रसालो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१५६ से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान' के स्थान पर पाकृत माल , . से 'ग' विपत 'श्र' स्वर के साथ आगे पारत 'श्राल' प्रत्यय में स्थित 'आ' स्वर की दीर्घात्मक संधि; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'प्ति' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रसालो रूप सिद्ध हो जाता है।
ज्योत्स्नावान् संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप जोरहाला होता है । इममें सूत्र-संख्या २.८ से 'य' का लोप; २.७७ से 'ते' का लोप: २०७५ से 'स्न् के स्थान पर 'राह' आदेश; २-१५६ से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान' के स्थान पर प्राकृत में 'अाल आइश; १-५ से प्राप्त रहा' में स्थित 'या' स्वर के साथ आगे आये हुए 'पाल' प्रत्यय में स्थित 'आ' स्वर की दीर्घात्मक मंधि और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जाण्हांला रूप सिद्ध हो जाता है।
धनवान संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप धणवन्तो होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से प्रथम 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-१४६ से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय वान' के स्थान पर प्राकृत में 'वन्त' श्रादेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर धणयन्तो रूप सिद्ध हो जाना है।
भक्तिमान संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप भत्तिवन्तो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २.७७ से 'क्' को लोप; २-८८ से लोप हुए 'क' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ति' में स्थित 'न' को द्वित्व 'न' की प्राप्ति; २-१५६ से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'मान्' के स्थान पर प्राकृत में 'वन्त' आदेश और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओं प्रत्यय की प्राप्ति होकर भसिवन्तो रूप सिद्ध हो जाता है।