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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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उपरितनम संस्कृत विशंपण रूप है। इसका प्राकृत रूप उरिल्लं होता है. इममें मत्र-संख्या १-२३१ सं 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति, २-१६३ से संस्कृत तत्र-भव वाचक प्रत्यय 'तन के स्थान पर इल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति-१० से 'रि' में स्थित 'इ' स्वर का आगे इल्लं' प्रत्यय की 'इ होने से लोपः १-५ से हलन्त व्यञ्जन 'र में 'इल्ल' के 'इ' की संधि; ३.५ से प्रथमा विभक्त के एक वचन में अकारान्न नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर उपरिकली रूप सिद्ध हो जाता है।
आत्मयिम् संस्कृत विशेषण म्प है। इसका प्राकृत रूप अप्पुल्ल होता है। इसमें सूत्र-संख्या
से 'सा' के न र द्वेि प्राप्ति, ६-६ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्ख स्वर "श्र को प्राप्ति; २.०६३ से मंस्कृत 'तत्र-भव वाचक प्रत्यय इय' के स्थान पर प्राकृत में 'उल्ल' प्रत्यय की प्रामिः .-१० से प्राप्त 'प' में स्थित 'अ' स्वर का आगे उल्ल' प्रत्यय का 'उ' होने से लोप; १-५ से हलन्त व्यञ्चन एप' में 'उल्ल' प्रत्यय के 'उ' की संधि; ३-२५ -से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्न नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्रान 'म्' का अनुस्वार होकर अप्युल्लं रूप सिद्ध हो जाता है ।।२-१६३॥
स्वार्थे कश्च वा ॥२-१६४॥ स्वार्थे कश्चकारादिल्लोल्ली डितों प्रत्ययौ वा भवतः ॥ क । कुक म पिञ्जरयं । चन्दयो । गयणयम्मि । घरणीहर-एक्खुमन्तयं । दुहिअए राम-हिअथए । इहयं । भालेढुझं । आश्लेष्टुमित्यर्थः ।। द्विरपि भवति । बहुप्रयं ॥ ककारोच्चारणे पैशाचिक-भाषार्थम् । यथा । वतनके चवनक समप्यत्त न ॥ इन्ल | निजिजासोअ-पल्लविल्लेख पुरिन्लो । पुरो पुरा वा ॥ उल्ल । मह पिउन्लश्रो । मुहल्लं । हत्थुल्ला । पक्ष चन्दो। गयणं । इह । पालेछु बहु । बहुमं! मुहं । हत्या ।। कुत्सादि विशिष्टे तु संस्कृतवदेव का सिद्धः ॥ यावादिलचणः कः प्रतिनियत विषय एवेति वचनम् ॥
अर्थः-'स्वार्थ' में 'क' प्रत्यय की प्राप्ति हुआ करती है और कभी कभी वैकल्पिक रूप से स्वअर्थ' में 'इल्ल' और 'उल्ल' प्रत्ययों की भा प्राप्ति हुआ करती है । 'क' से सम्बन्धित उदाहरण इस प्रकार है:-कुल म पिंजरम् = कुङ्कम पिञ्जरयं; चंद्रका चन्दी ; गगने गयणयम्मि, घरणो-धर-पक्षोभातम् = धरणीहर-पक्खुठभन्तयं; दुःखित राम हृदये-दुहिअए समहिअयए, इह इहयं; आश्लेष्टुम् =आलंठटुथ इत्यादि ।। कभी कभी 'स्व-अर्थ' में दो 'क' की भी प्राप्ति होती हुई देखी जाती है। जैसे:--बहुक कम् = बहुअयं । यहाँ पर'क'का उचारण पैशाचिक-भाषा की दृष्टि से है। जैसे:-वदने वदनं समर्पित्वा बतन के वतनकं समप्पेत्त न इत्यादि । 'इल्ल' प्रत्यय से सम्बन्धित उदाहरण इस प्रकार है:-निर्जिताशोक पल्लवेन निज्जिासोअ-पल्लविल्लेण, पुरो अथवा पुरा = पुरिल्लो; इत्यादि । उल्ल' प्रत्यय से संबंधित