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प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित -
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इसमें सूत्र संख्या २-१४५ से 'शोल' के स्थान पर 'इर' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्रकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय को प्राप्ति होकर गमिरी रूप सिद्ध हो जाता है।
नमन शीलः संस्कृत विशेष रूप है। इसका प्राकृत रूप नमिरो होता है । मूल संस्कृत-धातु 'नम्' है । इसमें सूत्र संख्या २-१४५ से 'शोल' के स्थान पर 'इर' प्रत्यय की प्राप्ति और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय को प्राप्ति होकर नमिरो रूप सिद्ध हो जाता है। ॥२-१४६ ।।
क्त्वम्तुमत्त प-तुश्राणाः ॥२-१४६ ॥ क्त्या प्रत्ययस्थ तुम् अत् तूण तुाण इत्येते आदेशा भवन्ति ॥ तुम् । दट्ठ । मोत्तु ।। म् । माग । हनिय ॥ तूल देत्तृण । काऊण ! तुप्राण । भेत्तुप्राण । साउमाण ॥ वन्दित्तु इत्यनुस्वार लोपात् ।। वन्दित्ता इति मिद्ध-संस्कृतस्यैव बलोपेन । कट्ट इति तु पार्षे ।।
अर्थः-अव्ययी रूप भूत कृदन्त के अर्थ में संस्कृत भाषा में धातुओं में 'क्त्वा' प्रस्थय का योग होना है; इसी अर्थ में अर्थात भूत कृदन्त के तात्पर्य में प्राकृत भाषा में कृत्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'तुम् अन, तूण, और तुअआण' ये चार श्रादेश होते हैं। इनमें से कोई सा भी एक प्रत्यय प्राकृत-धातु में संयोजित करने पर भूत कृदन्त का रूप बन जाता है। जैसे-'तुम्' प्रत्यय के उदाहरणः-दृष्ट वान्टु देख करके । मुक्त्वा मोतु छोड़कर के। 'अत्' प्रत्यय के उदाहरणः-भ्रमित्वाम्भमिश्र । रमित्वा-रमिश्र । 'तूण प्रत्यय के उदाहरणः-गृहोत्वा-धेत ण । कृत्या काऊण ।। 'तुप्राण' प्रत्यय के उदाहरणः-भित्वा =मेत्तु प्राण । श्रुत्वा मोउश्राण ।।
प्राकृत रूप, 'वन्दित्त ' भूत कृदन्त श्रर्थक ही है। इसमें अन्त्य हलन्न व्यञ्जन 'म्' रूप अनुस्वार का लोप होकर संस्कृत रूप 'वन्दित्वा' का ही प्राकृत रूप वन्दित्त बना है। अन्य प्राकृत रूप पन्दित्ता' भी सिद्ध हुए संस्कृत रूप के समान ही 'वन्दित्वा' रूप में से 'घ' व्यञ्जन का लोप करने से प्राप्त हुआ है। संस्कृत रूप 'कृत्वा' का पार्ष-प्राकृत में 'कटु' ऐसा रूप होता है ।
___ दृष्ट्या -संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप इट्टु होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१०६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; ४-२१३ से 'ट्र' के स्थान पर 'g' की प्राप्ति; और २-१४६ से संस्कृत कृदन्त के 'क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'तुम्' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१४७ से प्राप्त 'तुम' प्रत्यय में स्थित 'न' व्यञ्जन का लोप; १-१० से प्राप्त 'दृ' में स्थित' 'थ' स्वर का श्रागे 'तुम' में से शेष 'उम्' का 'उ' स्वर होने से लोप; १-५ से 'टू' में 'उम्' की संधि होने से 'ट.म्' की प्राप्ति और १.२३ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'म' का अनुस्वार होकर इलु रूप सिद्ध हो जाता है।