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* ग्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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यौष्माकम् संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप तुम्हेश्वयं होता है । इसमें सूत्र संख्या २-६१ से युध्मत् के स्थान पर 'तुम्ह' का आदेश; २-१४६ से 'इदमर्थ' वाचक प्रत्यय 'अब' के स्थान पर 'एचय का श्रादेश; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर तुम्हेच्चयं रूप सिद्ध हो जाता है।
अस्मदीयम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप अम्हेच्चयं होता है। इसमें सूत्र-संख्या
से 'श्राद्' के स्थान मा आदेश: २.५४६ से संस्कृत 'इय' प्रत्यय के स्थान पर 'एचय' आवेश; १-१० से प्राप्त 'अम्ह' में स्थित 'ह' के 'अ' का आगे 'एश्चय' का 'ए' होने से लोप; १-५ से प्राप्त 'अम्ह' और एच्यय की संधि; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२३ से प्रास 'म्' का अनुस्वार होकर अम्हेच्चर्य रूप सिद्ध हो जाता है ॥२-१४६॥
वतेलः ॥२-१५०॥ बतेः प्रत्ययस्य द्विरुक्तो धो भवति ॥ महुरच्च पाउलिउत्ते पासाया।
अर्थः-संस्कृत 'वत् प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में द्विरुक्त अर्थात् द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति होती है । जैसे:-मथुरावत् पाटलिपुत्रे प्रासादा महररुव पाडलिजसे पासाया॥
मथुरावर संस्कृन रूप है। इसका प्राकृत रूप महरव्य होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'थ्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-८४ से दीर्घ स्वर 'पा' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति और २-१५० से 'वम्' प्रत्यय के स्थान पर द्विरुक्त व्व' की प्राप्नि होकर महरव रूप सिद्ध हो जाता है।
पाटलिपुत्रे संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पाडलिउत्ते होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१६५ से 'ट' के स्थान पर 'ड' की प्राप्रि; १-१७७ से 'प' का लोप; २-७६ से 'र' का लोप; २-४ से शेप 'न' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति और ३-५१ से सप्तमी विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'हि' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पाडलिउत्ते रूप सिद्ध हो जाना है।
प्रासाड़ाः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पासाया होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-5 से 'र' का लोप, १-१७७ से 'द्' का तोप; १-१८० से लोप हुए 'द्' में से शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहु वचन में अकारान्त पुल्लिग में प्राप्त 'जस्' प्रत्यय का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस' प्रत्यय के कारण से अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'श्रा' की प्राप्नि होकर पासाया रूप सिद्ध हो जाता है ॥२-१४०॥
सांगादीनस्येकः ॥२-१५१॥