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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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प्राप्त प्रत्ययों की संधि और शेष सानिका उपरोक्त 'कत्ति' श्रादि रूपों के समान ही होकर कम से जैत्ति, जेतिल और जेह रूपों की सिद्धि हो जाती है।
एतापन संस्कृत विशेषरण रूप है । इसके प्राकृत रूप एत्ति, एशिलं और एदहं होते है । इनमें सूत्र-संख्या :-१५७ से मूल रूप एतत' का लोप; २-१५ से संस्कृत प्रत्यय 'पावत्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से एमिश्र, एत्तिल और ग्रहह' प्रत्ययों की प्राप्ति; और शेष साधनिका उपरोक्त केत्तिरं आदि रूपों के ममान हो होकर फम से एत्ति, एत्तिलं और एदहं रूपों की सिद्धि हो जाती है।
तावत् संस्कृत विशेषण रूप है । इसके प्राकृत रूप तेत्तिअं, तेत्तिल और तेदहं होते हैं। इनमें सूत्रसंख्या १-११ से मूल रूप 'तत' के अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त' का लोप; २-१५७ से संस्कृत प्रत्यय 'प्राचन्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से एत्तित्र, 'एत्तिल' और एइह प्रत्ययों की प्राप्ति और शेष साधनिका उपरोक्त केत्तिनं श्रादि रूपों के समान ही होकर क्रम से सेत्तिअं, तेत्तिल और वह रूपों की सिद्धि हो जाती है ।।२-१५७॥
कृत्वसो हुत्तं ॥२-१५८॥ वारे कृत्यस (हे ० ७.२) इति यः कृत्वस विहितस्तस्य हुत्तमिन्यादेशो मवति ॥ सयहुन् । सहस्सहु । कथं प्रियाभिमुखं पियहु । अभिमुखार्थेन हुच शब्देन भविष्यति ।
अर्थ:--संस्कृत-भाषा में 'वार' अर्थ म 'कृत्वः' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। उसी 'कृत्वः' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'हुत्तं श्रादेश की प्राप्ति होती है । उदाहरण इस प्रकार है:--शतकृत्वःसयहुतं और सहस्रकृत्यः सहस्सहुतं इत्यादि।
प्रश्नः-संस्कृत रूप 'प्रियाभिमुरलं' का प्राकृत रूपान्तर 'पियहुत्त' होना है। इसमें प्रश्न यह है कि 'अभिमुखे' के स्थान पर 'हुरी' की प्राप्ति कैसे होती है ?
उत्तर:-यहाँ पर 'हुत्तं' प्रत्यय की प्राप्ति 'कृत्वः' अथ में नहीं हुई है; किन्तु 'अभिमुख' अर्थ में ही 'हुत्त' शब्द पाया हुआ है । इस प्रकार यहां पर यह विशेषता समझ लेनी चाहिये ।
शतकृत्वः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सयहुतं होता है। इसमें सूत्र संख्या १.२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; २-१५८ से 'वार-श्रर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'कृत्व' के स्थान पर प्राकृत में 'हुशं' आदेश; और १-११ से अन्त्य व्यजन रूप विसर्ग अर्थात 'स्' का लोप होकर सयहुतं रूप सिद्ध हो जाता है।