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* प्रिपोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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संख्या १-१८७ से 'भ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्तिः ३-६ से हनीया विभक्ति के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'दा''पा' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-१४ से प्राप्म 'ण' प्रत्यय के पूर्व स्थित 'ल' के 'अ' को 'ए' की प्राप्ति होकर मुरहि-जलेण रूप सिद्ध हो जाना है।
कंढतैलम, संस्कृत विशेष रूप है । इसका प्राकृत रूप कडुएल्लं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१६५ से 'ट' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; २-१५५ से संस्कृत प्रत्यय तेल' के स्थान पर प्राकृत में 'एल्ल' आदेश ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कडुएल्लं रूप सिद्ध हो जाता है।
__अंकोठ तैलम् संस्कृत विशेपण रूप है। इसका प्राकृत रूप अकोल्ल-तेल्लं होना है। इसमें सूत्र संख्या १-२०० से 'उ' के स्थान पर द्वित्य 'ल्ल' की प्राप्ति; १.१४८ से 'ऐ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति R-6 से 'ल' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्तिा ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारांत नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर अंकोल्लतेल्लं रूप सिद्ध हो जाता है ।।२-१५५।।
यत्तदेतदोतोरित्तिय एतल्लक् च ॥२-१५६॥ एभयः परस्य ढाबादेरतोः परिमाणार्थस्य इत्तिन इत्यादेशो भवति ।। एतदो लुक च ॥ यावत् । जित्तिअं ॥ तावत् । तित्तिनं ॥ एतावत् । इति ॥
अर्थ:--संस्कृत सर्वनाम 'यत', 'तत् और एतत्' में संलग्न परिमाण वाचक प्रत्यय 'आवत्' के स्थान पर प्राकृत में 'इत्तिा ' आदेश होता है। एतत्' से निर्मित 'एतावत' के स्थान पर तो केवल 'इत्ति' रूप ही होता है अर्थात् 'पतायत' का लोप होकर केवल 'इत्ति' रूप ही आदेशवत प्राप्त होता है। उदाहरण इस प्रकार है:-यावत-जित्तिअं; तावत-तित्तिअं और एतावत-इत्तिनं ।।
यावत् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप जित्तिश्र होता है । इसमें सूत्र संख्या १-०४५ से 'य' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति; २-१५६ से 'श्रावत' प्रत्यय के स्थान पर 'इत्ति आदेश; १-५ से माप्त 'ज' के साथ 'इ' को संधि; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर जित्तिों रूप सिद्ध हो जाता है।
तावत् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप तित्तिअं होता है । इसमें मूत्र-संख्या २-१५६ से 'श्रावत' प्रत्यय के स्थान पर 'इचित्र' श्रादेश; १-५ से प्रश्रम 'न' के साथ 'ई' की संधि; और शेष साधानका उपरोक्त जित्ति' रूप के समान ही होकर सित्ति रूप सिद्ध हो जाता है।