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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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राज-गृहम संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप राय-हरं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'ज् का लोप; १-१८० से लोप हुप 'ज' में से शेष रहे हुन 'अ' के स्थान पर 'य की प्राप्ति; २-१४४ से 'गृह' के स्थान पर 'घर' आदेश; १-१८७ से प्राप्त 'घर' में स्थित 'घ' के स्थान पर 'ह' का आदेश; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और ५-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर राय-हरं रूप सिद्ध हो जाना है।
गृह-पतिः संस्कृता पर इसका प्रायः रूप हाई होता है : सूत्र-संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति, १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'ब' की प्राप्ति; १-१७५ से 'न' का लोप और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में ह्रस्व इकारान्त पुल्लिग में 'स' प्रत्यय के स्थान पर अन्य हस्त्र स्वर 'इ' को दीर्घ 'ई' की प्राप्ति होकर गह-बई रूप सिद्ध हो जाता है ।।२-१४४।।
शीलाद्यर्थस्येरः ॥२-१४५॥ शीलधर्म माम्वर्थे विहितम्य प्रत्ययस्य इर इत्यादेशो भवति ॥ हसन शीलः हसिरो । - रोविरो । लज्जिरो। जम्पिरो । वैदिरो। भमिरो ऊपसीरो ।। कंचित तुन एव इरमाहुस्तेषां नमिरगमिरादयो न सिध्यन्ति । तनोतरादिना बाधितत्वात् ।।
अर्थ:-जिन संस्कृत शब्दों में शील' अथवा 'धर्म' अथवा 'साधु' वाचक प्रत्यय रहा हुश्रा हो तो इन प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में 'इर' आदेश की प्राप्ति होनी है। जैसे:-हमनाल: अर्थात् 'हसितृ' के संस्कृत रूप 'हसिता' का प्राकृत रूप 'हसिरी' होता है। रादित रादिता%शविरो । लजिज लज्जिता लजिरो । जल्पिन जल्पिता-पिरो । केपितृ चे पिताम्वविरी । भमित भ्रमिताभमिरो । उच्छ वसितम्छ व सता ऊस सिरो || कोई-कोई व्याकरणाचार्य प्रेमा मानते हैं कि 'शोल', 'धर्म' और साधु' वाचक वृत्ति का बतलाने वाले प्रत्ययों के स्थान पर इर' प्रत्यय को प्राप्ति नहीं होती है, किन्तु केवल तृन् प्रत्यय के स्थान पर ही 'इर' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। उनके सिद्धान्त से नमिर' 'गमिर' आदि रूपों की सिद्धि नहीं हो सकेंगी। क्योंकि यहाँ पर 'बन्' प्रत्यय का अभाव है. फिर भी 'इर' प्रत्यय की प्राप्ति हो गई है। इस प्रकार यहाँ पर बांधा-स्विनि' उत्पन्न हो गई है। अत: 'शील' 'धर्म' और 'साधु' बाचक प्रत्ययों के स्थान पर भी 'इर' प्रत्यय की प्राप्ति प्राकृत-रूपान्तर में उसी प्रकार से होती है जिस प्रकार से कि-'नृन्' प्रत्यय के स्थान पर 'इर' प्रत्यय आता है।
हसिता संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप हसिरो होता है । इममें सूत्र-संख्या २-१४५ से संस्कृत प्रत्यय 'तृन्' के स्थान पर प्राप्त 'इता' की जगह पर 'इर' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर ओ प्रत्यय की प्राप्ति होकर हसिरो रूप सिद्ध हो जाता है ।
रोहिता संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप रोविरो होता है । इसमें सूत्र-संख्या ४-२२६