________________
* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
[४२७
अर्थः-संस्कृत शब्द 'वनिता' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से 'विलया' ऐसा श्रादेश होता है । जैसे:-वनिता = (वैकल्पिक-आदेश)-विलया और (व्याकरण-मम्मत)-वणिश्रा ! कोई कोई वैयाकरण-प्राचार्य ऐसा भी कहते हैं कि संस्कृत-भाषा में 'वनिता' अर्थ वाचक 'विलया' शब्द उपलब्ध है और उसी 'विलया' शब्द का ही प्राकृत-रूपान्तर विलया होता है। ऐसी मान्यता किन्हीं किन्हीं आचाय की जानना ।।
पनिता संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप विलया और वणिआ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप सूत्र-संख्या २-१२८ से आदेश रूप से विलया होता है।
द्वितीय रूप-(वनिता=) वणिया में सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ६-१७७ से 'त्' का लोप होकर पणिआ रूप सिद्ध हो जाता है। पिलया संस्कृत रूप (किसी २ आचार्य के मत से- है; इसका प्राकृत रूप भी विलया ही होता है।
मोरोपलापूरः ॥२-१२६॥ ईपच्छब्दस्य गौणस्य कूर इत्यादेशो वा भवति । चिंचव्य कूर-पिका | पचे ईसि ॥
अर्थ:-- वाक्यांश में गौण रूप से रहे हुए संस्कृत अव्यय रूप 'ईषत्' शब्द के स्थान पर प्राकृतरूपान्तर में 'कूर' आदेश की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होती है। जैसे-चिंचा इव इषन्-पक्वा-चिंचम्च फूर-पिक्का अर्थात चिंचा-(वस्तु-विशेष) के समान थोड़ीसी पकी हुई ।। इम उदाहरण में 'इयत्' के स्थान पर 'फूर' आदेश की प्राप्ति हुई है । पक्षान्तर में 'ईपन्' का प्राकृत रूप ईसि होता है । 'ईपन-पावा में दो शब्द है; प्रथम शब्द गौण रूप से रहा हुअा है और दूसरा शब्द मुख्य रूप से स्थित है। इस सूत्र में यह उल्लेख कर दिया गया है कि 'कूर' रूप आदेश की प्राप्ति 'ईषन्' शब्द के गौण रहने की स्थिति में होने पर ही होती है । यदि 'ईषन्' शब्द गौण नहीं होकर मुख्य रूप से स्थित होगा तो इसका रूपान्तर 'ईसि' होगा; न कि 'कूर' श्रादेश: यह पारस्परिक-विशेषता ध्यान में रहनी चाहिये ।
चिंचा देशज भाषा का शब्द है । इसका प्राकृत रूपान्तर चिच होता है। इसमें सूत्र-संख्या १.८१ से दीर्घ स्वर 'या' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति होकर पिंच रूप सिद्ध हो जाता है।
'व' अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६ में की गई है।
ईषत्-पक्या संस्कृत वाक्यांश है । इसका प्राकृत रूप कूर-पिक्का होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१२६ से 'ईषत् अव्यय के स्थान पर गौए रूप से रहने के कारण से 'कूर' रूप आदेश की प्राप्ति; १.४७ से 'प' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; २.. से 'ए' का लोप और २-८८ से शेष द्वितीय 'क' को द्वित्व 'क' की प्राप्ति होकर कूर पिकका रूप सिद्ध हो जाता है।