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अर्थः - संस्कृत शब्द "मलिन, उभय, शुक्ति, छुप्त, आरब्ध और पदाति" के स्थान पर प्राकृतरूपान्तर में वैकल्पिक रूप से क्रम से इस प्रकार आदेश रूप होते हैं; 'मइल, अवह, सिप्पि, विक, आदत्त और पाक || श्रादेश प्राप्त रूप और व्याकरण-सूत्र-सम्मत रूप क्रम से इस प्रकार है: ---मलिनम् = महलं अथवा मलिणं || उभयं = अवहं अथवा उभयं ॥ कोई कोई वैयाकरणाचार्य " उभयं" का प्राकृत रूप "उवहं" भी मानते हैं । जैसे-उभयावकाशम् == श्रवहो असं पक्षान्तर में " उभय" का उदाहरण "उभयवल" भी होता है। आर्ष-प्राकृत में भी "उभय" का उदाहरण " उभयोकाल" जानना । शुक्ति= सिप्पी अथवा सुत्ती ॥ लुप्मः grat अथवा तो ॥ श्रारब्धः = श्रदत्तो अथवा आरद्धो || और पदातिः = पाइनको अथवा पयाई ।
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* प्राकृत व्याकरण *
मलिनम्: – संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप महल और मलिणं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या २-१३८ से 'मलिन' के स्थान पर 'महल' का घादेश; ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में सिं' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ 'म्' का अनुस्वार होकर महलं रूप सिद्ध हो जाता है ।
द्वितीय रूप - ( मलिनम् = ) मांत्रण में सूत्र- संख्या १-२ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप 'महल' के समान ही होकर द्वितीय रूप मलिणं भी सिद्ध हो जाता है ।
उभयम्, संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप भयं श्रवहं और उवहं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या ३२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप उभयं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप - (उभयम् ) अहं में सूत्र संख्या २-१३८ से 'उभय' के स्थान पर 'श्रवह' का आदेश; और शेष सानिका प्रथम रूप वत् होकर द्वितीय रूप अवहं भी सिद्ध हो जाता है ।
तृतीय रूप- (अभयम्- ) उवह में सूत्र संख्या २-१३८ की वृत्ति से 'उमय' के स्थान पर 'उह' रूप की प्रदेश - प्राप्ति; और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर तृतीय रूप उवहं भी सिद्ध हो जाता है । उभयावकाशं संस्कृत रूप हैं। इसका प्राकृत रूप अवहोआसं होता है । इसमें सूत्र संख्या २-१३८ से 'उभय' के स्थान पर 'अवह' रूप की आदेश प्राप्ति; १-१७२ से 'अ' उपसर्ग के स्थान पर 'ओ' स्वर की प्राप्ति; १-१० से आदेश प्राप्त रूप 'वह' में स्थित 'ह' के 'अ' का आगे 'श्री' स्वर को प्राप्ति होने से लोपः १-५ से हलन्त शेष 'ह' में पार्श्वस्थ 'ओ' की संधि; १-१७७ से 'कू' का लोपः १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' को प्राप्तिः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'मू' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का=अनुस्वार होकर भवडीअसं रूप सिद्ध हो जाता हैं ।