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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित #
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उभय-बलम्, संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप उभयवलं होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३- २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर उभय बले रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रत्यय की
उभय कालम संस्कृत रूप है। इसका आर्ष- प्राकृत रूप उभयोकालं होता है। इसमें सूत्र संख्या २- १३८ की वृत्ति से उभय-काल के स्थान पर 'उभयो काल' की प्राप्तिः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय का प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर उभयो कालं रूप सिद्ध हो जाता है ।
शक्तिः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप सिप्पो और सुती हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्रसंख्या २-१३८ से शुक्ति' के स्थान पर 'सिप्पि' रूप को आदेश प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में स्त्र इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर की प्राप्ति होकर प्रथम रूप सिप्पी सिद्ध हो जाता है ।
को दीर्घ स्वर 'ई'
द्वितीय रूप - ( शुक्तिः = ) - सुत्ती में सूत्र संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्तिः २-५७ से 'क्ति' में रहे हुए हलन्त व्यञ्जन 'कू' का लोप; २-८६ से शेष रहे हुए 'तू' को द्वित्व 'तू' की प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में हाव इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप ती सिद्ध हो जाता है ।
सुप्तः संस्कृत विशेषण रूप हैं। इसके प्राकृत रूप छिको और छुत्तो होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र ' संख्या २-१३८ से 'छुप्त' के स्थान पर 'छिक्क' का आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप छिक्की सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (म) लुत्तो में सूत्र संख्या २७७ से हलन्त व्यञ्जन प्' का लोप; २-८६ से शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारांत पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप लुत्तो सिद्ध हो जाता है।
आरब्धः संस्कृत विशेषण रूप हैं। इसके प्राकृत रूप श्राढतो और श्राद्धी होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१३८ से 'श्रारब्ध' के स्थान पर 'दत्त' रूप को आदेश प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप आत्तो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप - (आरब्धः = आरद्धो में सूत्र संख्या २७६ से हलन्त व्यञ्जन 'ब' का लोप; २-८६ से शेष 'ध' को द्वित्व धूध को प्राप्ति २६० से प्राप्त पूर्व 'घ' के स्थान पर 'दू' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप आर सिद्ध हो जाता है ।