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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यन्जन 'स' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति२-७८ से 'य' का लोप; २-३७ से प्रथम हलन्त 'द' का लोप; १.१७७ से द्वितीय 'द्' का लोप और ३-२ से प्रथना विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसकलिंग में बि प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सिपा-बाओ रूप सिद्ध हो जाता है।
भव्यः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप भविश्रो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-१०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'व' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; २.४८ से 'य.' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकासन्त पुल्लिग में 'सि प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भाधो रूप सिद्ध हो जाता है।
देहरं रूप की मिद्धि सूत्र-संख्या १-१५१ में की गई है। चोरिभं रूप को सिद्धि सूत्र-संख्या १-३५ में की गई है ।
स्थैर्यम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप थेरिअं होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से हलन्त 'स.' का लोप; २-१४८ से दीर्घ स्वर 'ऐ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'ए' की प्राप्ति; २-१०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यन्जन र.' में आगम कप 'इ' की प्राप्तिः २-७८ से 'य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुमक लिंग में 'सि प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त 'म का अनुस्वार होकर थरि रूप सिद्ध हो जाता है।
भारिश्रा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-२४ में की गई है।
गाम्भीर्यम संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप गम्भीरियं और गहीरिअं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' को प्राप्ति; २-१०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र,' में श्रागन रूप 'इ' की प्राप्ति २.७८ से 'य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि प्रत्यय के स्थान पर प्राकृन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप गम्भीरिअं सिद्ध हो
जाता है।
द्वितीय रूप-(गाम्भीर्यम्) गहीरियं में सूत्र-संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'श्रा' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'थ' की प्राप्ति; २-७८ से हलन्त व्यञ्जन 'म' का लोप; १-१८७ से 'भ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; २-१०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'य के पूर्व में स्थित इलन्त व्यञ्जन 'र में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; -४० से 'य' का लोप; ३-२५ प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत्त में 'म् प्रत्यय की अप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनस्वार होकर द्वितीय रूप गहीरों भी सिद्ध हो जाता है।
पायरियो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-७३ में की गई है।