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* प्राकृत व्याकरण *
सुन्दरि रूप की सिद्धि सूत्र- संख्या १-१६० में की गई है ।
शौर्य संस्कत रूप है। इसका प्राकृत रुप सीरिश्रं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-१५६ से 'औ' के स्थान पर 'श्री' की प्राप्तिः २ - १०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; २००८ से 'य' का लोपः ३०-५ से प्रथमा त्रिभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सोरिअं रूप सिद्ध हो जाता है ।
वार्यम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप वौरिश्रं होता है। इसमें सूत्र संख्या २१०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; २७प से 'यू' का लीप ३-२४ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर वीरि रूप सिद्ध हो जाता है ।
पर्यम् संस्कृत विशेषण रूप हैं। इसका प्राकृत रूप बरि होता है। इसमें सूत्र संख्या २- १०० से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; २७८ से 'य का लोप; ३ -२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर घरिअं रूप सिद्ध हो जाता है ।
सूर्यः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सूरिश्र होता है। इसमें सूत्र संख्या २ १०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्तिः २०६ से 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सूरिओ रूप सिद्ध हो जाता है ।
धैर्यम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप धीरिश्रं होता है। इसमें सूत्र संख्या १- १५५ से 'ऐ' के स्थान 'ई' की प्राप्तिः २- १०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में श्रागम रूप 'इ' की प्राप्ति २८ से 'यू' का लोप; ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर धीरिक रूप सिद्ध हो जाता है।
बम्हचर रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ६२ में की गई है ।।२-१०७॥ स्वप्ने नात् ॥२- १०८॥
स्वप्नशब्दे नकारात् पूर्व इव भवति ।। सिविणो ||
अर्थः - संस्कृत शब्द 'स्वप्न' के प्राकृत रूपान्तर में संयुक्त व्यञ्जन 'न' के पूर्व में स्थित हलन्स व्यञ्जन 'प् में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति होती हैं। जैसे:-स्वप्नः सिविणो ॥