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* प्राकृत व्याकरण श्री
महाराष्ट्र शब्दे हरोयत्ययो भवति ।। मरहट ।
अर्थः-संस्कृत शटर महाराष्ट्र के प्राकृत-रूपान्तर में 'ह' वर्ग का और 'र' वण का परसर में व्यत्यय हो जाता है । जैमे:-महाराष्ट्रम् = मरहटुं ।। मरहट्ठ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६६ में की गई है ॥२-११६।।
हृदे ह-दोः ॥२.१२०॥ इद शब्दे हकार दकारयोर्व्यत्ययो भवति ॥ दहो ॥ आपे । हरए महपुण्डरिए ।
अर्थः-संस्कृत शब्द हद के प्राकृत रूपान्तर में 'ह' वर्ण का और 'द' वर्ण का परस्पर में व्यत्यय हो जाता है। जैसे-हरः इहो । पार्ष-प्राकृत में हृदः का रूप हरए भी होता है। जैसे-हर महापुरदुरीका हरए महपुण्डरिए ।।
दहो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या -८० में की गई है।
हरए प्रार्ष-प्राकृत रूप है । अतः साधानका का अभाव है। महापुण्डरीकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप महपुण्डरिए होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-४ से 'श्रा के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-१०१ से 'ई' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति, ५-१७७ से 'क' का लीप; और ४-२-७ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति तथा १.१. से लोप हुए 'क' में से शेष रहे हुए 'अ' को आगे '' प्रत्यय की प्राप्ति हो जाने से लोप होकर महपुण्डरिए रूप सिद्ध हो जाता है ॥२-१२॥
हरिताले र लोन वा ॥२-१२१॥ हरिताल शब्दे रकारलकारयो य॑त्ययो वा भवति । हलियारी हरिपालो ।।
अर्थ-संस्कृत शब्द् हरिताल के प्राकृत रूपान्तर में 'र' वर्ण का और 'ल' वण का परस्पर में व्यत्यय वैकल्पिक रूप से होता है । जैसे:-हरितालः हलियारो अथवा हरिबालो ।।
हरितालः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप हलियारो और हरिआलो होत हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-१२२ से 'र' और 'ल' का परस्पर में व्यत्यय; १.१७७ से 'तु' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारांत पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'नो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप हलिआर सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(हरितालः =) हरियाली में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'न्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप हरिआलो भी सिद्ध हो जाता है ॥२-१२॥