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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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कियाहीमम् संस्कृत विशेषण रूप है। इमका पार्ष:प्राकृत रूप किया-हाणं होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-७६ से २ का लोप; १.... ' से 'न' का ''; 2-4 से सयमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्का अनुस्वार होकर किया-हाणं रूप सिद्ध हो जाता है।
दिया संस्कृत श्रव्यय है। इसका प्राकृत रूप दिद्धिा होता है इस में सूत्र-संख्या-२-१३४ से संयुक्त म्यान'' के स्थान पर 'ठ' को प्राप्ति; २-१ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व '83' की प्राप्ति: २०१० से प्राप्त पूर्व 'ठ' को 'ट.' की प्राप्ति २-१०४ से प्राप्त 'टु' में श्रागम रूप 'इ' की प्राप्ति, और १-१७७ से 'य' का लोप होकर विष्टि रूप सिद्ध हो जाता है ॥२-१०४ ।।
श-प तप्त- वज्र वा ॥२-१०५ ॥ शर्षयोस्तप्तवज्रयोश्च संयुक्तस्यान्त्य व्यञ्जनात् पूर्व इकारो वा मवाते ॥ र्श । आयरिसों श्रायसो । सुदरिसणो सुदंसयो । दरिसण देसणं ।। र्ष । वरिम वास' । वरिसा वासा । परिस-सगं वास-सय' ।। व्यवस्थित-विमाषया क्वचिनित्यम् । परामरिसो। हरिसो । अमरिसो । सप्त । तविश्री तत्तो ।। वज्रम् = वरं वजं ।।
अर्थ:-जिन संस्कृत शब्दों में 'श' और 'र्ष' हो; ऐसे शरदों में इन 'र्श' और 'ई' संयुक्त व्यञ्जनों में स्थित पूर्व हलन्त व्यञ्जन 'र' में वैकल्पिक रूप से पागम रूप 'इ' को प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से 'तम' और 'वन' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन के अन्त्य भ्यञ्जन के पूर्व में रहे हुए हलन्त व्यञ्जन 'ए' अथवा 'ज' में वैकल्पिक रूप से प्रागम रूप 'इ' की प्राप्ति होती है। '' के उदाहरण; जैसे:- आदर्श:
आयरिसो अथवा पायंसो ॥ सुदर्शनः = सुदरिसणो अथवा सुदंसणो । दर्शनम् = दरिसणं अथवा ईसणं ।। '' के उदाहरण; जैसे-वर्षम् = वरिसं अथवा वासं || वर्षा= परिसा अथवा वासा ।। वर्ष-शतम् - वरिस-सयं श्रथवा बास-सयं ॥ इत्यादि । ट्यवथित्त-विभाषा से अर्थात नियमानुसार किसी किसी शटर में संयुक्त व्यञ्जन 'प' में स्थित पूर्व हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप ह' की प्राप्ति नित्य रूप से भी होती है। जैसे:-परामर्षः = परामरिमो। इषः हरिसो और अमर्षः = अमरिसो।। सूत्रस्थ शप उदाहरण इस प्रकार है:-तप्तः = तविप्रो अथवा तत्तो ॥ वनम् = बहरं अथवा व ज्ञ।
आदर्श: संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप अायरिसों और प्रायसो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'द' में शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्रामि; २-१०५ से हलन्त 'र' में प्रागम रूप 'इ' की प्रामि; १-२६० से 'श' को 'स' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्जिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप आयरिसो सिद्ध हो जाता है।