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* प्रिवोदय हिन्दी व्याख्या सहित
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क्लिन्नम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप किलिन्नं होता है। इसमें सूत्र संख्या २- १०६ से 'ल के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'क' में अगम रूप 'इ' की प्राप्तिः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार हो कर किलिन्न रूप सिद्ध हो जाता है ।
क्लिष्टम, संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप किलिट्ठ होता है। इस में सूत्र संख्या २-१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्तव्यञ्जन 'क' में आम रूप'' की प्राप्ति; २-३४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ट' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति २५० प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ठठ' की प्राप्ति; २६० से प्राप्त पूर्व 'ठ' के स्थान पर 'ट' को प्राप्ति ३ – ६५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-०३ से प्राप्त 'पू' का अनुस्वार होकर किलि सिद्ध हो जाता है ।
रूप
विलष्टम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप सिलिट्ठ होता है। इसमें मूत्र-संख्या २-१०३ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यंजन 'श' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-२६० से प्राप्त 'शि' में स्थित 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति और शेष साधनिका उपरोक्त 'किलिट्ठ" के समान हो प्राप्त होकर fafe रूप सिद्ध हो जाता है ।
ष्ट संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप पिलुट्ट होता है। इसमें सूत्र संख्या २-९०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'प' में आगम रूप 'इ' को प्राप्ति; और शेष साधनिका उपरोक 'फिलिट्टे' के समान ही प्राप्त होकर पिल्लई रूप सिद्ध हो जाता है ।
प्लोषः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पिलोसों होता है। इसमें सूत्र संख्या २ १०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'प' में आगम रूप 'इ' की मि; १-२६० से 'प' के स्थान पर स को प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में कान्त पुल्डिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति हो कर पिलोसो रूप सिद्ध हो जाता है ।
सिलिन्हो रूप की सिद्धि सत्र संख्या २-५५ में की गई है।
चलेषः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सिलेसो होता है। इसमें सूत्र संख्या २ १०६ से 'ख' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'श' में आगम रूप 'इ' को प्राप्तिः १-२६० से प्राप्त 'शि' में स्थित 'शू' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति १-२६२ से द्वितीय 'ष' के स्थान पर भी 'स' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सिलेसी रूप सिद्ध हो जाता है ।
शुक्लम संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप सुविकलं और सुइलं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'सू' की प्राप्ति २१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित