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* प्राकृत व्याकरण *
हो; एवं ऐसे पागम रुप स्वर की प्राप्ति हो जाने से बाला जाने घाला वह शठन अपेक्षाकृत कुछ अधिक लम्बा हो जाता है। इससे उस शब्द रूप के निर्माण मे ही कई एक विशेषताएं प्राप्त हो जाती हैं; नानुसार उसकी सानिका में भी अधिकृत-सूत्रों के स्थान पर अन्य ही सूत्र कार्य करने लग जाते हैं । 'विप्रकर्ष' पारिभाषिक शब्द के एकार्थक शब्द 'स्वर मोक्त' अथवा 'विश्वष भी है। इस प्रकार उच्चारण की दीर्घता से-खिचाव सेमी स्थिति उत्पन्न हो जाती है और इसीलिये संयुक्त व्यञ्जन 'ण' अथवा 'न' के स्थान पर कभी कभी 'एह की प्राप्ति नहीं होता है। उदाहरण इस प्रकार हैं:-कृष्णः - फसणो और कृरन = कसिणो । ऐसी स्थिति के उदाहरण अन्यत्र भी जान लेना चाहिये ।।
साह रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-११८ में की गई है। पएहो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३५ में की गई है।
शिश्नः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत काप सिण्हो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२६. से प्रथम 'श' का 'स'; २-७५ से संयुक्त व्य-जन अन' के स्थान पर गह' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सिण्हो रूप सिद्ध हो जाता है ।
विण्हू रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-८५ में की गई है।
जिष्णुः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप जिएहू होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७५ से संयुक्त न्यजन 'ण' के स्थान पर 'राह' श्रादेश की प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एफ बचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर जिण्ड रूप सिद्ध हो जाता है।
____ कृष्णः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप काही होता है । इस में सूत्र-संख्या १-९२६ से '' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-७५ से संयुक्त व्यञ्जन 'cण' के स्थान पर 'राह' आदेश की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभषित के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति हो कर कण्हो रूप सिद्ध हो जाता है।
उष्णीषम संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप राहीसं होता है। इसमें सूत्र संख्या २.७५ से संयुक्त व्यञ्जन 'या' के स्थान पर 'गह का श्रादेशः १-२२० से 'प' का 'स'; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर उपहासं रूप सिद्ध हो जाता है।
ज्योत्स्ना संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप जोरहा होता है।
इस में सूत्र-संख्या २.७८ से 'य' का लोप: २-७७ से 'त्' का लोप; २-७५ में संयुक्त व्यञ्जन 'स्ल' के स्थान पर 'एह' आदेश की प्राप्ति हो कर जोण्डा रूप सिद्ध हो जाता है।