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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय को प्राप्ति होकर क्रम से एक्को और एओं दोनों रूप की सिद्धि हो जाती है।
कुतूहलम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप कोउहल्लं और कोहलं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप कोतहलं की सिद्धि सूत्र-संख्या ५-११७ में की गई है।
द्वितीय रूप-(कुतूहलम् = ) कोउहलं में सूत्र-संख्या -१-११७ से प्रथम दृस्व स्वर 'उ' के स्थान पर 'श्री' की प्राप्ति; १-१४७ से 'त्' का लोप; १-११७ से लोप हुए 'त्' में से शेष रहे हुए दीर्घ स्वर 'क' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति;३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप कोउहलं भी सिद्ध हो जाता है।
व्याकुलः संस्कृत विशेषता है। इसमें प्राकृत का ताउलो और वाउलो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप वाउल्लो की सिद्धि सत्र-संख्या १-२२१ में की गई है।
द्वितीय रूप-(व्याकुल:-) वाउलो में सूत्र संख्या २-७८ से य' का लोप; १-१४७ से 'क' का लोप और ३.से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुस्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप पाउलो भी सिद्ध हो जाता है।
स्थूल: संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप थुल्लो और थोरो होत हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या :-० से 'स' का लोप; १८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' को प्राप्ति, २. से अन्य व्यञ्जन 'ल' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'ल' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप थुल्ली सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(स्थूलः = ) थोरो में सूत्र संख्या २.७७ से 'स' का लोप; १-१२४ से दोघ स्वर 'ऊ के स्थान पर 'श्री' की प्राप्रि; १-२५५ से 'ल' के स्थान पर 'र' रूप आदेश की प्राप्ति और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप थोरों भी सिद्ध हो जाता है।
इतम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप हुत्त और हूअं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दोर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति, २-1 से अन्त्य व्यञ्जन 'त' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१.७७ से 'त्' का लोप एवं दोनों ही रूपों में सूत्र-संख्या ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और ६-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम में हुतं और हमें दोनों हो रूप सिद्ध हो जाते है।