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* प्राकृत व्याकरण
आलिद्धो । पुष्पं । भिन्भलो ।। तैलादौ (२-६८) द्वित्वे श्रोखलं । सेवादी (२-६६) नक्खा नहा || समासे । कइ-द्धो कर-धरो ।। द्वित्व इत्येव । खाओ।
__ अर्थ:-किसी भी धर्रा के दूसरे अक्षर को अथवा चतुर्थ अक्षर को द्वित्व होने का प्रसंग प्राप्त हो तो उनके पूर्व में द्वित्व प्राप्त द्वितीय अक्षर के स्थान पर प्रथम अक्षर हो जायगा और द्वित्व प्राप्त चतुर्थ अक्षर के स्थान पर तृतीय अक्षर हो जायगा । विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि-किसी संस्कृत शब्द के प्राकृत में रूपान्तर करने पर नियमानुसार लोप होने वाले वर्ण के पश्चात शेष रहे हुए वर्ण को अथवा श्रादेश रूप से प्राप्त होने वाले वर्ण को द्वित्व होने का प्रसंग प्राप्त हो तो द्वित्व होने के पश्चात प्राप्त द्वित्व वर्गों में यदि वर्ग का द्वितीय अक्षर हैं; तो विल्य प्राप्त वर्ण के पूर्व में स्थित हलन्त द्वितीय अक्षर के स्थान पर लसी वर्ग के प्रथम अक्षर की प्राप्ति होगी और यदि द्वित्व प्राप्त वर्ण वर्ग का चतुर्थ अक्षर है तो उस द्वित्व प्राप्त चतुर्थ अक्षर में से पूर्व में स्थित चतुर्थ अक्षर के स्थान पर उसो वर्ग के ततीय अक्षर की प्राप्ति होगी । 'शेप' से संबंधित उदाहरण इस प्रकार है:-व्याख्यानम् = वाखाणं । व्याघ्रः = बग्यो । मूछी मुच्छा । निझरः-निज्झरो । कष्टम् = कटुं । तीर्थम् = तित्थं । निर्धना=निद्धणो। गुल्फम् =गुप्फं। निर्भरः- निटभरो।। इसी प्रकार से 'आदेश' से सम्बंधित उदाहरण इस प्रकार है:-यतः= जक्खो ।। दीघ 'ध' का उदाहरण नही होता है । अक्षिः= अच्छी । मध्यं = मम स्पष्टिः = पट्ठी ।। वृद्धः= बुद्धो । हस्तः= हत्थो । प्राश्लिष्टः = प्रालिद्धी । पुष्पम् = पुष्फ और चिखलः भिटभलो ।।
सूत्र संख्या २-६८ से तैल आदि शब्दों में भी द्वित्व वर्ण की प्राप्ति होती है; उनमें भी इसी मत्रविधानानुसार प्राप्त द्वितीय अक्षर के स्थान पर प्रथम अक्षर को प्राप्ति होती है और प्राप्त चतुर्थ अक्षर के स्थान पर तृतोय अक्षर की प्राप्ति होती है । उदाहरण इस प्रकार है:-जदूखलम् अोखलं । इसी प्रकार सूत्र संख्या ६६ मे सेवा आदि शब्दों में भी द्वित्त वर्ण की प्राप्ति होती है; उन शब्दों में भी यही नियम लागू होता है कि प्राप्त द्वित्व द्वितीय वर्ष के स्थान पर प्रथम वर्ण की प्रापि होती हैं प्राप्त द्विव चतुर्थ वर्ण के स्थान पर तृतीय वर्ण की प्राप्ति होती है । उदाहरण इस प्रकार है:-नखाः = नक्खा अथवा नहा ।। समास गत शब्द में भी द्वितीय के स्थान पर प्रधम की प्राप्ति और चतुर्थ के स्थान पर तृतीय को प्राप्ति इसी नियम के अनुसार जानना । उदाहरण इस प्रकार है: · कपि-ध्वजः = कइ-द्धी अथवा कइधो ।। उपरोक्त नियम का विधान नियमानुसार द्वित्व रूप से प्राप्त होने वाले वर्षों के संबंध में ही जानना, जिन शब्दों में लोप स्थिति की अथवा आदेश-स्थिति की उपलब्धि (तो) हो; परन्तु यदि ऐसा होने पर भी विर्भाव की स्थिति नहीं हो तो इस नियम का विधान ऐसे शब्दों के संबंध में लागू नहीं होगा । जैसे:--ल्यातः खाओ । इस उदाहरण में लोप-स्थिति है। परन्तु द्विर्भाव स्थिति नहीं है; अतः सूत्र-संख्या २०६० का विधान इस में लागू नहीं होता है।
व्याख्यानम् संस्कृतरूप है। इसका प्राकृत रूप वाखाणं होता है। इस में सूत्र संख्या ५-७८ से दोनों 'यू' कारों का लोप; १-८४ से शेष 'वा' में स्थित दीर्घस्वर 'आ' के स्थान पर इस्व स्वर 'अ' की