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* प्राकृत व्याकरण *
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कांस्याल; संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कसालो होता है। इसमें सत्र-संख्या 1-८४ से 'को' में स्थित दीर्घ स्वर 'श्रा' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; -७८ से 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कंसालो रूप सद्ध हो जाता है।॥२-६२॥
र-होः ॥२-६३ ॥ रेफहकारयोति न भवति ।। रफा अंगी मास्ति ।। प्रादेश । सुन्दरं । बम्हचरं । परन्त ॥ शेषस्य हस्य । विहलो ।। थादेशस्य । कहावणो ।
अर्थः---किसी संस्कृत शब्द के प्राकृत रूपान्तर में यदि शेष रूप से अथवा श्रादश रूप से 'र' वर्ण की अथवा 'ह' वर्ण की प्राप्ति हो तो ऐसे 'र' वर्ण को एवं 'ह' वर्ण को द्वित्व की प्राप्ति नहीं होती है। रेफ रूप 'र' वर्ण कभी भी शेष रूप से उपलब्ध नहीं होता है; अतः शेष रूप से संबंधित 'र' वर्ण के उदाहरण नहीं पाये जाते हैं । श्रादेश रूप से 'र' वर्ण की प्राप्ति होती है; इसलिये इस विषयक उदाहरण इस प्रकार हैं :-सौन्दर्यम् = सुन्दरं ॥ ब्रह्मचर्यम् = घम्हचेर और पर्यन्तम्- पेरन्तं ॥ इन उदाहरणों में संयुक्त व्यन्जन 'र्य' के स्थान पर 'र' वर्ण की प्रादेश रूप से प्राप्ति हुई है। इस कारण से 'र' वर्ण को सूत्र संख्या २-८८ से द्विर्भाव की स्थिति होनी चाहिये थी; किन्तु सूत्र संख्या २-१३ से निषेध कर देने से द्विांव की प्राप्ति नहीं हो सकती है। शेष रूप से प्राप्त 'ह' का उदाहरण:-बिजल:-विहलो ॥ इसमें द्वितीय 'व' का लोप होकर शेष 'ह' की प्राप्ति हुई है। किन्तु इसमें भी २-१३ से द्विर्भाव की स्थिति नहीं हो मकतो है । आदेश रूप से प्राप्त 'ह' का उदाहरण:-कार्यापाणः = कहावणी । इस उदाहरण में संयुक्त व्यजन 'ई' के स्थान पर सूत्र-संख्या २-४१ से 'ह' रूप श्रादेश की प्राप्ति हुई है। तदनुसार सूत्र संख्या 1-से 'ह वर्ण को द्विर्भाव की स्थिति प्राप्त होनी चाहिये थी; परन्तु सूत्र संख्या २-६३ से निषेध कर देने से द्विर्भाव की प्राप्ति नहीं हो सकती है। यों अन्य जदाहरणों में भी शेष रूप से अथवा आदेश रूप से प्राप्त होने वाले रेफ रूप 'र' और 'ह' के द्विर्भाव नहीं होने की स्थिति को समझ लेना चाहिये ।।
सुन्दरं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-५७ में की गई है। बम्हचेरं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-५६ में की गई है।
पर्यन्तम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पेरन्तं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-५६ से 'प' में स्थित 'अ' वर के स्थान पर. 'ए' स्वर की प्राप्ति; २-६५ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर 'र' रूप आदेश की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर परन्त रूप सिद्ध हो जाता है।
विह्वलः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप विहलो होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७४ द्वितीय 'व्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के