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* प्राकृत व्याकरण *
वहल्लं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१६६ में की गई है। उज्जू रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३१ में की गई है।
बीडा संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप विडा होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७ से 'र' का लोप; १.८४ से दोघ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' को प्राप्ति और २-६८ से अन्न्य व्यम्जन बु' को द्वित्व 'इ' को प्राप्ति होकर पिडा रूप सिद्ध हो जाता है ।
वहुत्त रूप सूत्र संख्या १-२३३ में की गई है ।
स्रोतः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सोत्त होला है । इसमें सूत्र संख्या ७६ से 'र' का लोप; २-85 से अनन्त्य व्यञ्जन 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्रि; १-११ से विसरा रूप अन्त्य व्यजन का लोप, ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सोत्तं रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रेमन संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पेम्मं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७६ से 'र' का लोग, २०६८ से अन्त्य व्यञ्जन 'म' को द्विस्व 'म' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य व्यञ्जन 'नका लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पेम्म रूप सिद्ध हो जाता है।
जुब्वणं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१५६ में की गई है।
प्रतिषीतः संस्कृन रूप है। इसका प्राकृत रूप पढिसोओ होता है। इसमें सूत्र-मख्या २७६ से दोनों 'र' का लोप; १-२०६ से प्रथम 'त' के स्थान पर '' की प्राप्ति; १-७७ से द्वितीय 'न्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पाडसोओ रूप सिद्ध हो जाता है।
विस्रोतसिका संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप विस्सोअसिा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७६ से 'र' का लोप; २-८६ से शेष प्रथम 'स' को द्वित्व 'स्स' की प्राप्ति; १-१७७ से 'न' और 'क' का लोप होकर विस्तोसिआ रूप सिद्ध हो जाता है । २.६८।।
सेवादी वा ॥२-६६ ॥ सेवादिषु अनादौ यथादर्शनमन्त्यस्यानन्त्यस्य च द्वित्वं वा भवति ॥ सेव्या सेवा ।। नेड नीडं । नक्सा नहा । निहित्तो निहिश्रो। बाहितो वाहियो। माउक' माउअं। एको एो। कोउहल्लं कोउहलं । वा उल्लो बाउलो। थुल्लो थोरो। हुरं हूझं। दइच्वं दवं । तुहिको तुहियो । मुक्कों मूओ। खएणु खाणू । थिएणं थीणं ॥ अनन्त्यस्य । अम्हक्केरं अम्हकरं।