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* प्राकृत व्याकरण *
__ अर्थ:-संस्कृत शब्द 'दान' के प्राकृत रूपान्तर में नियमानुसार '' और 'त' व्य-जन का लोप हो जाने के पश्चात् शेष वर्ण को द्विर्भाव की प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:-हम-मिहेनरिअ-साहेण ।। परिश्र सोहण रूप को मिद्धि सूत्र संख्या १-१४४ में की गई है । ।। २-६.६ ॥
समासे वा ॥२-६७॥ शेषादेशयोः समासे द्वित्व या भवति ॥ नइ-ग्गामो, नइ-गामो । कुमुमपयरो कुसुमपयरो । देव-त्थुई देव-थुई । हर-क्खन्दा हर खन्दा । आणाल खम्भो आमाल-खम्भो ।। बहुलाधिकारादशेषादेशयोरपि । स-पिकासो स-पिवासो । बद्ध फलो यद्ध-फलो । मलय -सिहर. क्खण्डं मलय-मिहर खण्ड । पम्मुक्त पमुक । असणं असणं । पडिकूल पडिक्कूलं । तेल्लोकं तेलोक इत्यादि।
अर्थ:-संस्कृत समासगत शठदों के प्राकृत रूपान्तर में नियमानुसार वर्गों के लोप होने के पश्चात् शेष रहे हुए अथवा आदेश रूप से प्राप्त हुए वर्गों को द्विर्भाव की प्राप्ति विकल्प से हुश्रा करती है। अर्थात् समासगत शब्दों में शेष रूप से अथवा आदेश रूप से रहे हुए वर्गों की द्विस्व-स्थिन विकल्प से हुआ करती है। उदाहरण इस प्रकार है:-नदी-ग्राम-नइ-ग्गामो अथवा नइ-गामो ।। कुसुम-का-कुसुमप्पयरो अथमा कुसुम-पयरो ॥ देव-स्तुतिः-देव-त्युई अथवा देव-थुई । हर-स्कंदौ-हर-क्खन्दा अथवा हर-खन्दा ॥ श्रालान-स्तम्भ:-आणाल खम्भो अथवा श्राणाल-खम्भो ।। "बहुलम्' सूत्र के अधिकार से समासगत प्राकृत शब्दों में शेष रूप से अथवा आदेश रूप से नहीं प्राप्त हुए वर्गों को भी अर्थात शब्द में प्रकृति रूप से रहे हुए वों को भी विकल्प से द्वित्व स्थिति प्राप्त हुआ करती है। तात्पर्य यह है कि समासगत-शब्दों में शेष रूप स्थिति से रहित अथवा आदेश रूपस्थिति से रहित वर्गों को भी द्विभाव की प्राप्ति विकल्प से हुआ करती है। उदाहरण इस प्रकार हैं:-स पिपामः = सपिवासो अथवा स-पिवासो। बद्ध-फलः = बद्धप्फलो अथवा बद्ध-फलो | मलय-शिखर-खण्डम मलय-सिहर-क्खण्डं अथवा मलय-सिहर-खण्डं।। प्रमुक्तम् = पम्मुक्कं अथवा पमुक्छ । अदर्शनम् = अद्दसणं अथवा अईप्तणं ।। प्रतिकूलमपखिफूलं अथवा पडिकल और त्रैलोक्यम् = तेल्लोकं अथवा तेलोक इत्यादि ।। इन उदाहरणों में द्वि-र्भाव स्थिति विकल्प से पाई जाती है; यो अन्य उदाहरणों में भी जान लेना चाहिये ।
नदी-ग्रामः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नइ-ग्गामो और नइ गामो होते हैं। इन में सूत्र संख्या १.९७७ से 'दु' का लोप; २.६ से 'र' को लोप; १.८४ से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हाव स्वर 'इ' की प्राप्ति; २-६७ से 'ग' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'मा' को प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कम से नइ-ग्गामो और नइ-गामी दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है।
कुसुम-प्रकरः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप कुसुमापयरो और कुसुम-पयरो होते हैं। इनमें