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* प्राकृत व्याकरण *
इन उदाहरणों में दीर्घ स्वर के धागे वर्ग-विशेष को लोप स्थिति से शेष वर्ण की स्थिति अथवा आदेश प्राप्त वर्ण की स्थिति होने पर भी उनमें द्विभाव की स्थिति नहीं है ।
__ अनुस्वार संबंधी उदाहरण निम्नोस है। प्रथम ऐसे उदाहरण दिये जा रहे हैं, जिनमें अनुस्वार की प्राप्ति ध्याकरण के नियम-विशेष से हुई है; ऐसे उदाहरण लाक्षणिक कोटि के जानना । यत्रम्-तंसं । इस उदाहरण में लोप स्थिति है; शेषवर्ण 'स' की उपस्थिति अनुस्वार के पश्चात रही हुई है; अत: इम शेष वर्ण 'स' को द्वित्व 'स्स' की प्राप्ति नहीं हुई है। यों अन्य लाक्षणिक उदादरण भी समझ लेना। अब ऐसे उदाहरण दिये जा रहे हैं। जिनमें अनुस्वार की स्थिनि प्रकृति रूप में ही उपलब्ध है; ऐसे उदाहरण अनाक्षणिक कोटि के गिने जाते है । संध्या = संझा । विध्या-विझो और कांस्यालः = कंसोलो ॥ प्रथम दो उदाहरणों में अलाक्षणिक रूप से स्थित अनुस्वार के आगे श्रादेश रूप से प्राप्त वर्ण 'झ' की उपस्थिति विद्यमान है; परन्तु इस 'झ' वर्ण को पूर्व में अनुस्वार के कारण से द्वित्व झझ' की प्राप्ति नहीं हुई है। तृतीय उदाहरण में 'य' का लोप होकर अनुग्वार के आगे शेष वर्ण के रूप में 'स' की उपस्थिति मौजूद है; परन्तु पूर्व में अनुस्वार होने के कारण से इस शेष वर्ण 'स' को द्वित्व 'म स' की प्राप्ति नहीं हुई हैं। यो अन्यत्र भी जान लेना । इन्हें अलाक्षणिक कोटि के उदाहरण जानना; क्योंकि इनमें अनुस्वार की प्राप्ति व्याकरण गत नियमों से नहीं हुई है; परन्तु प्रकृति से ही स्थित है ।।
क्षिमः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप छूढो होता है । इसमें सूत्र संख्या २-१२७ से संपूर्ण क्षिप्त' शब्द के स्थान पर ही 'छुद्ध' रूपादेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति में अकारांत पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर छूढो रूप सिद्ध हो जाता है।
नोसासो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ५-६३ में की गई है।
स्पर्श संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप फासो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-९८२ से स्पर्श शव के स्थान पर हो 'फास' रूप श्रादेश की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर फासो रूप सिद्ध हो जाता है
पार्श्वस संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पास होता है । इस में सत्र-संख्या २४ से रेफ रूप 'र'का और 'व' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; २.८६ से शेष 'स' को द्वित्व 'रस' की प्राप्ति होनी चाहिये थी; परन्तु २-१२ से इस 'द्विर्भाव-स्थिति का निषेध; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपु'सक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पासं रूप सिन्द हो जाता है।
शीर्षम संस्कृत रूप है । इस का प्राकृत रूप रूप सीसं होता है। इस में सूत्र-संख्या १-२६० से दोनों 'श' 'ए' का 'स' 'स'; २-७६ से 'र,' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सीस रूप सिद्ध हो जाता है।