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* प्राकृत व्याकरण *
कोई कोई प्राचार्य 'द्रह' शब्द को प्राकृत नहीं मानते हुए संस्कृन-शदद के रूप में ही स्वीकार करते हैं। इनके मत से 'द्रहा' और 'दहो' दोनों रूप प्राकृत में होंगे। बोद्रह' दाद देशज-भाषा का है और यह 'तरुण-पुरूष' के अर्थ में प्रयुक्त होता है । इम में स्थित रेफ 'रूप' 'र' का कभी भी लोप नहीं होना है । 'बोद्रह पुल्लिंग है और 'चोदही' स्त्रीलिंग बन जाता है । उदाहरण इस प्रकार है:-शिक्षन्ताम् तरुण्यासिक्खन्तु- बोद्रहीनो अर्थात नययुवती स्त्रियां शिक्षाग्रहण करे । तरूण-हद पतिता = वोद्रह द्रहम्मि पडिया अर्थात वह ( नवयुचती) तरुण पुरुष रूपी में गिर पड़ी । (तसा एक प्रेम में अपात हो गई)। यहाँ पर 'वोद्रह' शब्द का उल्लेख इस लिये करना पड़ा कि यह देशज हैं; न संस्कृत भाषा का है
और न प्राकृत भाषाका है तथा इसमें स्थित रेफ रूप 'र' का लोप भी कभी नहीं होता है। अतः सूत्रसंख्या २८. के संबन्ध से अथवा विधान से यह शब्द मुक्त है; इसी तात्पर्य को समझाने के लिये इम शब्द की चर्चा सूत्र की वृत्ति में की गई है जो कि ध्यान में रखने योग्य है ।।
चन्दा और चन्द्रो दोनों रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३० में की गई है।
रुवः संस्कृत रूप है । इस के प्रायन रूप कही और भद्रो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र. संख्या २.८० से रेफ रूप द्वितीय 'र' का विकल्प से लोप; २-८६ से शेष 'द' को द्वित्व 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में 'अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय को प्राप्ति होकर प्रथम रूप रुद्दो मिद्ध हो जाता है।
द्वितोय रूप ( रुद्रः=) रुद्रो में सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप रद्रा भी सिद्ध हो जाता है।
भद्रम् संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप भई और भद्र होते है। इनमें से प्रथम रूप में सूत्रसंख्या २-८० से रेफ रूप 'र' का लोप; २-८१ से शेष 'द' को द्विस्व '६ को प्राधि; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय को प्रानि और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार हो कर प्रथम रूप भई सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (भद्रम् - ) मन को सानिका प्रथम रूप के समान ही सूत्र संख्या ३.२५ और १.२३ के विधानानुसार जान लेना चाहिये ।
समुद्रः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप समुद्दो और समुद्री होते है। इन में से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-० से रेफ रूप 'र' का लोप; २.८६ से शेष 'च' को द्वित्व 'द' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर समुही रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (समुद्रः = ) समुद्री की साधनिका सूत्र-संख्या ३-२ के विधानानुसार जान लेना
।
चाहिये।