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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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कुल्या संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप कुल ना होता है। इसमें पत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप और २-८६ से शेप 'ल' को दिल्ब 'ल्ल' की प्राप्ति होकर कुएला म्प सिद्ध हा जाना है।
माल्यम, संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप मल्ल होता है । इसमें सुत्र मख्या १८१ से दीर्घ स्वर 'श्रा के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'श्र की प्रानिः २. से 'य' का लाप; -८८ से शेष 'ल' को द्वित्व लल' को प्राप्ति: ३-२५ से प्रथमा विमक्ति के एक बचन में प्रकारान्न नसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से शाम 'म' का अनुस्वार होकर मल्लं रूप सिद्ध हो जाता है।
दिओ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६४ में की गई है। दुआई रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ५-६४ में की गई है । बार और दारं दोनों रूपों को मिद्धि सूत्र-संख्या १-७६ में की गई है।
उद्विग्न : संस्कृत विशेषण रूप है । इसके प्राकृन रूप उश्विगो और उत्रिगणों होते हैं। इनमें में प्रथम रूप उप्रिमो की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है । द्वितीय रूप में सूत्र-मंच्या २-५७ से द' का लोप; २-८८ से शेप 'व' को द्रित्व 'व्य की प्राम, २-७७ से 'म् का लोप; २-८८ से शंप 'न' को द्वित्व 'नन' को प्रामि; १-२२८ से दोनों 'न' के स्थान पर '' को प्राप्ति गौर ३. प्रशमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उठिवण्णो रूप सिद्ध हो जाता है। वन्द्र रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ ५३ में की गई है ।।२-७४
२ रो न वा ॥२-८०॥ द्रशब्दे रेफस्य का लुग भवति ।। चन्दो चन्द्रो । रुदो रुद्रा । भई भद्र । समुद्दो समुद्रो ।। हदशब्दस्य स्थितिपरिवृत्तौ द्रह इति रूपम् । तत्र द्रहो दही । कंचिद् रलापं नेच्छन्ति । द्रह शब्द. मपि कश्चित् संस्कृतं मन्यते ।। बोद्रहायस्तु ताणापुरुषादिवा वका नित्यं रफसंयुक्ता देश्या एव । सिक्खन्तु चोद्रहीश्रो ! बोद्रह-द्रहम्मि पडिया
अर्थ:- जिन संस्कृत शब्दों में 'द्र' होता है; उनके प्राकृत-रूपान्तर में 'द्र' में स्थित रेफ रूप 'र' का विकल्प से लोप होता है। जैसे:-चन्द्रः = चन्दो अथवा चन्द्रो ।। रुद्रः = रुद्दा अथवा रुद्रो ॥ भद्रम् = मह अथवा भद्र । समुद्रः = समुद्दो अथवा समुद्रो । संस्कृत शब्द 'हद' के स्थान पर वों का परस्पर में न्य-चय अर्थात् अदला बदली होकर प्राकृत रूप 'द्रह' बन जाता है । इस वर्ण व्यत्यय से उत्पन्न होने वाली अवस्था को 'स्थिति-परिवृत्ति' भी कहते हैं। इसलिये संस्कृत रूप 'हदः' के प्राकृत रूप द्रहो अथवा दही दोनों होत हैं। कोई कोई प्राकृत व्याकरण के प्राचार्य 'द्रह' में स्थित रेफ रूप 'र' का लोप होना नहीं मानते हैं; उनके मतानुसार संस्कृत रूप 'हृदः का प्राकृत रूप केवल 'द्रही' ही होगाः द्वितीय रूप दही' नहीं बनेगा।