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धात्री संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप घत्ती, धाई और धारो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घस्वर 'या' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति २-८१ से 'र्' का (वैकल्पिक रूप से ) लोप; और २०० से शेष 'त' को वित्त' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप ती सिद्ध हो जाता है ।
* प्राकृत व्याकरण *
द्वितीय रूप ( धात्री ) धाई में सूत्र संख्या २-८१ से ( वैकल्पिक रूप से ) र ' का लांप और
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२- ७७ से 'तू' का लोप होकर द्वितीय रूप धाई भी मिद्ध हो जाता है।
तृतीय रूप ( धात्री = भी सिद्ध हो जाता है । २-८१ ।।
धारी में सूत्र संख्या २.७७ से 'तू' का लोप होकर तृतीय रूप धारी
तीक्ष्णः ।। २ - ८२ ।। तीक्ष्ण शब्दे णस्य लुग्वा भवति ॥ तिक्खं । तिहूं ॥
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अर्थ :-- संस्कृत शब्द तोक्षण में रहे हुए 'ए' का प्राकृत रूपान्तर में विकल्प से लोप हुआ करता है । जैसे:- तीक्ष्णम् - तिक्तं अथवा तिरहं ||
तीक्ष्णम् संस्कृत विशेषण रूप है। इस के प्राकृत रूप तिक्खं और तिगृहं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति २८२ से 'ण' का लोप २०३ से 'च' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २८ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख' को प्राप्ति २-६० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क' की प्राप्तिः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'मू' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त मू का अनुस्वर होकर प्रथम रूप तिक्ख सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप तिरहं की सिद्धि सूत्र संख्या २०७५ में की गई है । २८२ ॥
झोञः ।। २-८३ ।।
ज्ञ: संबन्धिनो अस्य लुग वा भवति || जाणं गाणं । सब्वज्जो सन्वष्णू । अज्जी अप्पण्णू | दवज्जो दइवष्णू । इङ्गिज्जो इङ्गिराय् । मणोज्जं । मणोष्णं । हिज्जो हिए । पज्जा पण्णा । अज्जा भया । संजा सख्या । कच्चिन्न भवति विणणं ॥
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अर्थः- जिन संस्कृत शब्दों में संयुक्त व्यजन 'ज्ञ' होता है; नब प्राकृत रूपान्तर में संयुक्त व्यक्जन 'ज्ञ' में स्थित 'न' व्यञ्जन का विकल्प से लोप हो जाता है । जैसे:- ज्ञानम् - जाणं अथवाणां । सर्वज्ञः = सब्वज्जो अथवा सव्वरणू ॥ आत्मज्ञः = श्रप्पज्जो अथवा अप्पर || दैवज्ञः दइवज्जो अथवा दtary | इङ्गितज्ञ :- इति श्रज्जो अथवा इङ्गिणू || मनोज्ञम् मणोज्जं श्रथवा मणों । श्रभिज्ञः = हिजो अथवा श्रहिए । प्रज्ञा-पज्जा अथवा परणा । श्रज्ञा श्रजा अथवा श्राणा ॥ संज्ञा= संजा