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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित
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दहः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप हो और वही होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-५० से रेफ रूप 'र' का विकल्प से लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रमसे द्रहो और दही दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं ।
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शिक्षन्ताम् संस्कृत विधिलिंगात्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप सिक्खन्तु होता है । इस में सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स' २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्रामि २-५९ से प्राप्त 'ख' की 'द्वित्व 'खख' की प्राप्तिः २०६२ से प्राप्त पूर्व 'खू को क की प्राप्ति ३०९७६ से संस्कृत विधिलिंगात्मक प्रत्यय 'न्ताम्' के स्थान पर प्रथम पुरुष के बहुवचन में प्राकृत में 'न्तु प्रत्यय को प्राप्ति होकर सिक्खन्तु रूप सिद्ध हो जाता है ।
तरुण्यः संस्कृत रूप हैं । इसके स्थान पर देशज-भाषा
परम्परा से रूढ़ शब्द 'वो' प्रयुक्त होता आया है । इसका पुल्लिंग रूप 'बोद्रह' होता है। इस में सूत्र संख्या ३-२१ से पुल्लिंग से स्त्रीलिंग रूप बनाने में प्राप्त 'ई' प्रत्यय से 'बोद्रही' रूप की प्राप्ति और २-२७ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में ईकारान्त स्त्रीलिंग में प्राप्त 'जम् प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर visit रूप सिद्ध हो जाता है।
तरुण संस्कृत शब्द है । इसका देशज भाषा में रूद्ध रूप 'पोह' होता है। यहां पर समासात्मक वाक्य में आया हुआ है; अतः इस में स्थित विभक्ति-प्रत्यय का लोप हो गया है ।
रूप है | इसका प्राकृत रूप हम्नि होता है । इस में सूत्र संख्या २-१२० से '६' और द का परस्पर में यम और ३-११ से ममी विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'वि' के स्थान पर प्राकृत में 'स्मि' प्रत्यय की प्राप्ति हो कर ब्रह्मम्मि रूप सिद्ध हो जाता है।
पतिता संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रुद पडिश्रा होता है। इसमें सूत्र- संख्या ४-२१६ से प्रथम 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति और १-१७७ से द्वितीय 'तू' का लोप होकर पढिजा रूप सिद्ध हो जाता है । २८० ॥
धात्र्याम ॥ २-८१ ॥
धात्री शब्दे रस्य लुग् वाभवति ॥ घती हस्वात् प्रागेव रलोपे धाई । पढे । धारी ॥
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अर्थः - संस्कृत शब्द ' धात्री' में रहे हुए 'र्' का प्राकृत रूपान्तर में विकल्प से लोप होता है । धात्री=धत्ती अथवा धारी ॥ आदि दीर्घ स्वर 'आ' के ह्रस्व नहीं होने की हालत में और साथ में 'र' का लोप होने पर संस्कृत रूप 'धात्री' का प्राकत में तीसरा रूप धाई भी होता है । यों संस्कृत रूप धात्री के भाकृत में सोन रूप हो जाते हैं; जो कि इस प्रकार है:- बत्ती, धाई और धारी ॥