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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित
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गुप्तः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप गुत्तो होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से पूर्वस्थ एवं हलन्त 'पू' वर्ण का लोपः ६ से शेष रहे हुए 'त' वर्ण को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति और ३-२ प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गुप्त रूप सिद्ध हो जाता है ।
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लक्ष्णम् संस्कृत रूप हैं | इसका प्राकृत रूप लाई होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७७ से पूर्वस्थ पूर्व हलन्त 'श' का लोप; २७५ से संयुक्त व्यञ्जन 'ण' के स्थान पर 'यह' आदेश की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में ककारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की माप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर लहं रूप सिद्ध हो जाता है ।
निश्चलः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप णिच्चलो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' का 'ण'; २ - ७७ से पूर्वस्थ एवं हलन्त 'शू' वर्ण का लोप २-८६ से शेष रहें हुए 'च' वर्ण को द्वित्व 'च' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर शिच्च रूप सिद्ध हो जाता है ।
संस्कृतकर्मक क्रिया पद का रूप है। इसका प्राकृत रूप चुअइ होता है। इसमें सूत्रसंख्या २-७७ से पूर्वस्थ एवं हलन्त 'श' वर्ष का लोप १-१७७ से प्रथम 'तू' का लोप और ३-१३६ से वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चुअह रूप सिद्ध हो जाता है ।
गोष्ठी संस्कृत रूप हैं । इसका प्राकृत रूप गोट्टी होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से पूर्वस्थ एवं हलन्त 'धू' वर्ण का लोप; २-२६ से शेष रहे हुए 'ठ' को द्वित्व 'ठ' की प्राप्ति और २०६० से प्राप्त पूर्व 'व्' को 'टू' की प्राप्ति होकर गोटी रूप सिद्ध हो जाता है ।
बट्टो रूप की सिद्धिं सूत्र संख्या १-२६४ में की गई हैं।
निठुरो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२५४ में की गई है ।
स्खलितः संस्कृत विशेषण रूप हैं। इसका प्राकृत रूप खलियो होता है। इसमें सूत्र संख्या - से पूर्वस्थ एवं हलन्त 'स्' वर्ण का लोपः १-१७७ से 'न का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय को प्रत्यय की प्राप्ति होकर लिओ रूप सिद्ध हो जाता है ।
स्नेहः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप नेहो होता है। इसमें सुत्र संख्या २- ७७ से पूर्वस्थ एवं हलन्त 'स' वर्ण का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर नेहो रूप सिद्ध हो जाता है ।