________________
*प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
[३३६
स्तोत्रम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप थोत्त होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-४५ से संयुक्त न्यजन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; २-5 से 'न' में स्थित 'र' का लोप; २-८८ से शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'स' की प्राप्ति; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के पाक बदन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय का प्राप्ति और १-०३ में प्राः 'म्' का अनुस्वार होकर थोतं रूप सिद्ध हो जाता है।
स्तोकम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसको प्राकृत रूप थोअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-४५ से मंयुक्त ध्यसन स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क'का लोप; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्रकारान्त-नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पो रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रस्तरः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पत्थरो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-७ से प्रथम 'र' का लोप; २-४५. से संयुक्त रचान 'क्त' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; २-६ से प्राप्त 'थ' को द्वित्व 'थथ' की प्राप्ति:२-० से प्राप्त पर्व 'थ' को 'त.' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारांत पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पत्थरी रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रशस्तः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप पमत्यो होना है। इसमें सूत्र-संख्या २-७६ से 'र' का लोप; १-२६० से '।' का 'R'; २.४५ से संयुक्त व्यञ्चन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; २-८८ से प्राप्त 'थ' को द्वित्व 'थ' की प्राप्ति; २.६० से प्राप्त पूर्व 'थ् ' को 'त' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त-पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पसायी रूप सिद्ध हो जाता है।
अस्ति संस्कृत क्रिया-पद रूप है। इसका प्राकृत रूप अस्थि होता है। इस में सूत्र-संख्या २-४५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; २-८८ से प्राप्त 'थ' को द्वित्व 'थ्थ' को प्राप्ति और २-६० से प्राप्त पूर्व 'थ' को 'त' की माप्ति होकर आत्थि रूप सिद्ध हो जाता है।
___स्थस्तिः संस्कृत अध्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप सस्थि होता है। इसमें सूत्र-संख्या २.८ से च का लोप; २-४५ से संयुक्त व्यञ्जन स्त' के स्थान पर 'थ' को माप्ति, २-८६ से प्राप्त 'व' को द्वित्व 'धूथ' को प्राप्ति; २०१० से प्राप्त पूर्व 'थ' के स्थान पर 'तू, की प्राप्ति और १-११ से अन्य व्यजन रूप विसर्ग का लोप होकर सरस्थ रूप सिद्ध हो जाता है।
___ समाप्तः संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप समतो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८, से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर स्व स्वर 'श्र' की प्राप्ति २.७७ से '' का लोप; २.६ से 'त' को द्वित्व "त' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बयान में अकारान्त पुल्लिर में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर समत्तो रूप सिद्ध हो जाता है।