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* प्राकृत व्याकरण
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अर्थ :-- संस्कृत शब्द 'मन्यु' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'न्यु' के स्थान पर विकल्प से 'न्स्' की प्राप्ति होती है। जैसे:-मन्युः - मन्तू अथवा मन्नू ॥
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मन्युः संस्कृत रूप हैं । इस के प्राकृत रूप मन्नू और मन्नू होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्रसंख्या = ४४ से संयुक्त व्यञ्जन 'न्य' के स्थान पर विकल्प से मृत का प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में हृश्य स्वर उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य व स्वर 'उ' दीर्घ स्वर 'क' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप मन्तु सिद्ध हो जाता है ।
मन की सिद्धि सूत्र संख्या २०२५ में की गई है । २-४४ ।।
स्तस्य यो समस्त स्तम्बे ॥ २-४५ ॥
समस्त स्तम्ब वर्जितं स्तस्य श्री भवति । हत्यो । थुई | थोच | श्री | पत्थरी पसत्थो । अस्थि । सत्थि || समस्त स्तम्ब इति किम् । समत्तो । तम्बो
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अर्थ::- समस्त और स्तम्ब शब्दों के अतिरिक्त अन्य संस्कृत शब्दों में यदि 'स्त' संयुक्त व्यञ्जन रहा हुआ है; तो इम संयुक्त व्यञ्जन 'स्त के स्थान पर 'थ की प्राप्ति होती है । जैसे:- हस्तः हत्थो || स्तुतिः = धुई || स्तोत्रम् - थोत | स्तोकम्योचं ॥ प्रातरः = पत्थरो ॥ प्रशस्तः = पसत्थो । अस्ति श्रथ ॥ स्वस्ति सत्थि ॥
प्रश्न:- यदि अन्य शब्दों में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति हो जाती है; तो फिर 'समस्त' और 'स्तम्ब' शब्दों में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति क्यों नहीं होती है ?
उत्तरः- क्यों कि 'समस्त' और 'म्ब' शब्दों का रूप प्राकृत में 'समतो' और 'तम्बो' उपलब्ध; हैं; अतः ऐसी स्थिति में 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? उदाहरण इस प्रकार हैं:-- समाप्त: समन्त्ती और स्तम्बःतम्बो ||
इस्तः संस्कृत रूप है | इसका प्राकृत रूप हत्यो होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति २६ से प्राप्त 'थ' को द्वित्व 'थ्य' की प्राप्तिः २०६० से प्राप्त पूर्व 'ध' को 'त' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में श्रप्रयय की प्राप्ति हो कर इत्थो रूप सिद्ध हो जाता है ।
स्तुतिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप हुई होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्तिः १-१७७ से द्वितीय 'त' का लोप और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में ह्रस्व इकारान्त स्त्री लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में ह्रस्व स्वर '' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर शुई रूप सिद्ध हो जाता है ।
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