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*प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १.८४ से दीर्घ स्वर 'श्रा' के स्थान पर हस्व 'अ' को प्राप्तिः २.५१ से संयुक्त व्यञ्जन 'हम' के स्थान पर विकल्प से 'प' की प्राप्ति; २-८८ से प्राप्त 'प' को द्वित्व 'पप' की प्राप्ति १.११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप और ३-४४ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नकारान्त पुल्लिा में अन्त्य 'न' का लोप हो जाने पर एवं प्राप्त 'सि' प्रत्यय के स्थान पर शेष अन्तिम व्यञ्जन 'प' में वैकल्पिक रूप से श्रा' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप अप्पा सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप मागणी में 'ए' पर्यन्त तो माम म्प के समान हो सूत्र-साधनिका की प्राप्ति और शेष 'आणों में सूत्र-संख्या २५६ से वैकल्पिक रूप से 'पापा' श्रादेश की प्राप्ति एवं ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुल्जिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप अप्पाणो भी सिद्ध हो जाता है।
तृतीय रूप 'अत्ता' में सूत्र-संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'श्रा' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति २-७८ से म्' का लोप; २८६ से 'त' को द्वित्व 'त्त की प्राप्ति; और ३-४६ से (नकारान्त पुल्लिग शब्दों में स्थित अन्त्य 'न' का लोप होकर) प्रथमा विभक्ति में प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति होकर तृतीय रूप अत्ता भी सिद्ध हो जाता है ।।२.५१।।
डम--कमोः ।। २.-५२॥ मक्मी: पो भवति ।। कुड्मलम् । कुम्पलं । रुक्मिणी । रुपिणी । काचित् मोपि !! रुमी रुप्पी !
____ अर्थ:--जिन संस्कृत शब्दों में संयुक्त व्यजन 'डम' अथवा 'कम' रहा हुआ होता है; तो ऐसे शब्झें के प्राकृत रुपान्तर में इन संयुक्त व्यवन 'इम' अथवा 'म' के स्थान पर प' की प्राप्ति होती है। जैसे:-'इम' का उदाहरण-कुडमलम् कुम्पर्ल ।। 'कम' का उदाहरण-रुक्मिणी-रुप्पिणी इत्यादि । कभी कभी क्म के स्थान पर 'सम' को प्राप्ति भी हो जाती है । जैसे:-रुक्मी रुमी अथवा रुप्पो ।।
कुडमलम् संस्कृत रुप है । इसका प्राकृत रूपं कुम्पलं होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-५२ से संयुक्त न्यजन 'डम के स्थान पर 'प' की प्राप्ति; १-२६ से १थम श्रादि स्त्रर 'उ' पर अनुस्वार रूप प्रागम की प्राप्तिः १-३" से प्राप्त अनुस्वार को श्रागे 'प' वर्ग की स्थिति होने से पवर्ग के पञ्चमाक्षर रूप हलन्त 'म् की गप्ति, ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' को अनुस्वार को प्राप्ति होकर कुम्पल रूप सिद्ध हो जाता है।
रुक्मिणी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप रुपिणी होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-५२ से संयुक्त व्यञ्जन 'जन' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति; और २-८६ से प्राप्त 'प' को हित्य 'प्प' की प्राप्ति होकर रुपिणी रूप सिद्ध हो जाता है।