________________
* प्राकृत व्याकरण
नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्रानि; और १.५३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कोप्परं रूप सिद्ध हो जाता है।
स्थूलं संस्कृत विशेषण है; इसका प्राकृत रूप थोरं होता है । इसमें सूत्र संख्या २-४० से स्' का लोप; ६-१२४ से 'ॐ' का 'ओ'; १-२५ से 'ल का र';३-२५५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर थारं रूप सिद्ध हो जाता है।
साम्य र संमत रूप है। इसका प्राकृत रूप तम्बोल होता है । इसमें सूत्र संख्या १-८४से मोदि 'श्रा' का 'अ'; १२४ से 'अ' का 'श्री'; २-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और ६.०३ से प्राप्त: 'म्' का नुस्वार होकर सम्बोल रुप सिद्ध हो जाता है।
गलोई शब्द की सिद्धि सूत्र संख्या १-१०७ में की गई है।
मय संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मोल्लं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२४ से 'ऊ' का 'ओ'; २-७८ से 'य' का लोप; २-४ से 'लका 'विस्य 'ल'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्सि; और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर मोडल रूप सिद्ध हो जाता है ।।। १२४ ।।
स्थूणा-तूणे वा ॥१-१२५॥ अनयोस्त श्रोत्वं वा भवति ।. थोणा धूणा । तोणं तूणं ।।
अर्थ:-स्पूणा और तूण शब्दों में रहे हुए 'उ' का विकल्प से 'श्री' होता है । जैसे-स्थूणाथोणा और थूणा । तूपम् तो और तूरणं ।।
स्थूणा संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप धोणा और थूणा होते हैं । इनमें सूत्र संख्या २-४७ से 'स्' का लोपः १.१२५ से 'अ' का विकल्प से 'ओ' होकर थोणा और शृणा रूप सिद्ध हो जाते हैं।
तूर्ण संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप तोणं और तूणं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१२५ से '' का विकल्प से 'श्री'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १०२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर तीर्थ और सूर्णम्प सिद्ध हो जाते हैं ॥१२॥
ऋतात ।। १.१२६ ॥ श्रादेऋकारस्य अत्वं भवसिगा पृतम् । पर्य ॥ तृणम् । तणं ॥ कुनम् । लयं ॥ वृषभः । घसहो । सुगः । मत्रो ।। पृष्टः । षट्ठो || हाइममिति कपादिपाठात् ॥